Friday, December 28, 2018

वक़्त का पिटारा

गुज़रे वक़्त का पिटारा खोला है
बेतरतीब पड़े लम्हो को
समेटने का विचार किया है

यादों की तह के बीच से
कुछ चमकते सिक्कों से सपने मिले हैं
बाँहें पसार मुझे आगोश में लेने को बेचैन हैं

वहीँ कोने में पड़ा यादों का उलझा गोला मिला है
हाथ से उठा उसीसे ठिठुरती
ज़िन्दगी का हिसाब लिया है

कुछ कड़वी बातों की गठरी भी सहेजे  हुए थी
आज  बाहर निकाल फेंकने का
इरादा बुलंद करा है

नीचे दबे ख़याली उम्मीदों के खाली डब्बे भी जगह घेर रहे हैं
क्या  काम उनका यहाँ
चलो उन्हें भी बाहर फ़ेंक दिया जाये

गुड़ मुड़ पीले पन्नों सी मुस्कराहट दुबकी बैठी थी
चमकती धुप दिखा कर
आज उसे फिर ओढ़ लिया है

वक़्त का पिटारा आज फिर खोल लिया है
साफ़ सुथरा कर
नए रंगों को रास्ता दिया है




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Thursday, October 11, 2018

हमारी बला से

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मूर्ति की पूजा हम खूब करेंगे
हार चढ़ी तस्वीर भी पूजनीय है
अरे किसके पास वक़्त है
हाड मांस के लिए वो जिए या मरे
हमारी बला से

उस दुर्गा माँ को तो हम पूजेंगे
वही किसी कोने में खेलती मासूम ज़िन्दगी
को तो हम नोच खाएंगे
फिर चाहे वो घर की कली हो या बाहर की
हमारी बला से

वो दुर्गा मूर्ति वाली माँ तो बस मुस्कराती रहती है
वो क्या बिगाड़ लेगी हमारा
हम चाहे जितने चीर हरण करें
कौन कृष्ण बचाने आएंगे
हमारी बला से

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Friday, August 31, 2018

गधा सिंह का बाप हो गया

देखो गधा कर रहा सिंह की सवारी

नया ज़माना आ गया
सिंह को नोच गधा खा गया
घास मुंह में दबाये
बोटी बोटी चबा गया

देखो गधा सिंह पे हावी हो गया

वाह वाह कर रही दुनिया
सिंह बेचारा बीमार हो गया
गधा सर पे नाच उसके
खीसे निपोर छल रहा जमके

आज गधा सिंह का बाप हो गया 

नज़र झुका सुस्त कदम से 
नाप रहा जंगल को 
छुप छुप के गधे से 
साध रहा जीवन को 

बदल रास्ता मायूस हो गया 

देखो देखो वो गधा 
कर रहा सिंह की सवारी 
बेख़ौफ़ उस पर हावी हो 
आज उसी का बाप हो गया 

देखो गधा सिंह का बाप हो गया....  
.... सिंह का बाप हो गया। 

~ ३१/०८/२०१८~ 

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Wednesday, April 4, 2018

अधूरे अलफाज़

सिमट जाने दो आज
कागज़ पर लफजो़ की हर सिलवट को
क्या खबर कितनी बेचैंनियां दबी हैं नादांने दिल में

गुफतगू करते वो खामोश दिल
धडकन के संमुंदर में बहते
करें इतंज़ार कशती का

उफनती लहरों की तनहांइयां
मोन शोर को समेट
बिखेरें मुस्कराहटें चटा्नों पर।

-०४/०४/२०१८-


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Friday, February 23, 2018

सरल जि़दगी

'भूरी'


वो अचानक सर्दी की एक दोपहर
मासूम निगाहों से कुछ माँगते हुए
मेरे कदमों में आ बैठी
प्यार से देख अवाज़ लगाती रही
उसकी बेचैनी मेरी ममता जगा गई
मेरे कदम बढे और दुध रोटी ले आए
ममता से मैंने जो उस पर हाथ फेरा
वो निशचिंत हो
अपनी भूख शांत करने बैठ गई
और तभी से मेरी साथी बन गई

कितनी आसान और मासूम होती है न जिंदगी
उसको न कुछ ज्यादा चाहिए हमसे
न ही दिखावट मैं है विशवास
एक कदम प्रेम का बस
झट से गले लगा लेती है
कुछ पल खेलती और फिर
अपनी राह निकल जाती है

ना जाने हम किन ख्यालों को दिल से जकडे रखते हैं
ना जाने क्यौं सुख में दुख ढुढंते हैं
सब कुछ कितना आसान है
दिल खुला रखना भर है
वो न्ऩहि सी जान अपनी मासूम निगाहों से
जि़दगी का सरल राज़ सिखा गई।

-२३/०२/२०१८-


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