मीना अहाते में बैठी इंतजार कर रही थी। इंतजार के अलावा कर भी क्या सकती थी।
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भाग्य ने उसकी किस्मत में यही लिखा था.. दूर आम के पेड़ पर पड़े झूले को देख रही थी। कैसे वो निश्चल दिन थे जब बिना किसी की परवाह करे वो दिन भर झूला झूलती थी। पेड़ पर चढ उसके पके आम खाती थी। मंजू, उसकी प्यारी सहेली उसका खूब साथ देती थी।
दो साल पहले मंजू का ब्याह हो गया था। बारह साल की ही तो थी मंजू.. कितनी सुंदर लग रही थी उस लाल जोड़े में। हाथो में महंदी बहुत गहरी रंग लाई थी। खन खन करती उसकी लाल हरी चूड़ियां, माथे पे चमकती बड़ी सी गोल बिंदी, पैरों में घुंगरू वाली पायल .. यह सब देख उसका मन भी ब्याह करने को चाहने लगा था।
और फिर उसकी बिदाई हो गई । वो चली गई अपने ससुराल। मीना अकेली रह गई थी। बड़ी याद आती थी मंजू की उसे।
एक दिन डाकिया बाबू आए .. ट्रिन ट्रिन साइकिल की घंटी बजाते। और उसके हाथ में थमा दिया एक पोस्टकार्ड। जिसपर मीना का नाम लिखा था। पाठशाला में छठी कक्षा में पढ़ती थी सो खत से अपने नाम को पहचान गई।
" मां, देखो मीना का खत आया है मेरे लिए.." वो चहकती हुई अंदर भागी।
" मां , मीना ने लिखा है , इस महीने वो घर आएगी। पूरे पंद्रह दिन के लिए आ रही है। जिज्जाजी उसको लीवाने बाद में आएंगे" हर्षित हो उसने पल में घर भर को नाप लिया था।
कागज का नन्हा सा टुकड़ा उसको इतनी खुशियां दे सकता है उसने जाना ही नहीं था।
कैसे कटेंगे इतने दिन उसके इंतजार में , यही सोच सोच उसका दिल विचलित हो रहा था।
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जैसे तैसे वो दिन भी आ ही गया.. सुबह से ही मीना एक टांग पर सारा काम कर रही थी। उसकी प्यारी सहेली जो आने वाली थी।
"मीना ओ री मीना.. कहां छुप गई रे.. में मिलने को बैचैन हूं। " मंजू ने घर में घुसते हुए कहा।
दोनों सहेलियां जी भर के गले मिली और खूब रोई। मीना की मां की आंखें भर आईं थीं दोनों का स्नेह देख कर। वो दोनो के लिए लस्सी और कचोरियां ले आई.. थोड़ी देर बात कर रसोई बनाने चली गई।
मंजू ने मीना को अपने बड़े घर के बारे में ढेरो बातें बताई। उसकी बातें जैसे ख़तम ही नहीं हो रही थीं। उसने जिज्जाजि की बहुत बातें बताई। मीना उसकी बातें आंखे फाड़ कर सुनती रही।
"ऐ मीना, कितना अच्छा हो कि तेरा ब्याह इनके जुड़वा भाई से हो जाए। हम दोनों सहेलियां हमेशा साथ में रहेंगी। कितना मज़ा आएगा है ना..?"
मीना की आंखों ने भी सतरंगी सपने देखने शुरू कर दिए थे।
उसकी बातें मीना की मां के कानो मे पड़ी.. वो सोच में पड़ गई।
" बात तो सौ पते की कर रही है मंजू.. घर तो मंजू का ही है.. कुछ पता करने भी ज़रूरत नहीं .. खानदान भी अच्छा है, खूब पैसा भी है। और सबसे बड़ी बात दोनों सहेलियां एक साथ रह पाएंगी हमेशा। में आज ही मीना के पिताजी से बात करती हूं। जितनी जल्दी यह रिश्ता हो जाय उतना अच्छा। देर करी तो कहीं रिश्ता हाथ से ना निकल जाय।" मीना की मां ने पक्की तौर पर मन बना लिया।
शाम को जब पति घर आए तब बिना वक्त गंवाए उसने अपने मन की बात उनके सामने रख दी।
" देखो मीना की अम्मा, घर खानदान अच्छा है इस बात से मुझे इनकार नहीं। लेकिन देखो तो ज़रा, अभी नन्ही सी बच्ची है.. क्या जल्दी है ब्याह की..? तनिक थोड़ा हमार साथ रह लेन दो। कौन जाने सासरे में क्या आराम मिलेगा"
"हद करते हो जी। मंजू भी तो वहीं ब्याही है। खुस भी लाग रही है। अपनी मीना के भी नसीब खुल जाएं जो बा घर में ब्याह गई। मंजू मीना से बस चार महीना ही तो बड़ी है। बाकी सादी है गई तो अपनी मीना की काहे ना हो सके??"
"देखो, आज में बहुताय थक गया हूं। सोच विचार कर ही में अपनों जवाब दूंगा। चल अब पेले रोटी खिला, बड़ी जोर की भूख लाग रही है।"
मीना के पिता ने इस विषय मै कोई बात नहीं करी। कई दिन बीत गए। मंजू का दूल्हा आज उस लिवाने आने वाला था। सब दामाद जी का स्वागत करने की तैयारी रहीं थीं। मीना की मां भी ताज़ा खीर बना कर मंजू के घर को चली।
वहां दमादंजी का उजाला रग रूप और मीठी वाणी सुन कर , मीना की मां को इसी घर में मीना को भेजने का विचार अच्छे से घर कर गया।
शाम को घर पहुंच उसने फिर बात छेड़ी.. " देखो जी आज अपनी आंख से दामाद जी को देख के आईं हूं। मंजू के रही थी कि दोनों जुड़वा है । तो समझो मेने उनके भाई को भी देख लिया। कहीं से भी कोई कमी ना है। उमर में भी ज्यादा बड़े ना है। उनीस साल के बड़े सलोने से हैं।
आपके सोच विचार में कहीं इतना अच्छा लड़का हाथ से ना निकल जाए। आप कल ही उनसे रिश्ते की बात करने जाओ। बस मेने अपना फैसला सुना दो। " अपनी बात कह वह गुस्से में मुंह फेर कर बैठ गई।
" ठीक है जैसा तुमको सही लगे। मेरा तो अब भी यही मानना है दो एक साल रुक जाए। पर तुम्हारी जिद के आगे मेरे सब तर्क बेकार। कल ही जाता हूं .. बस अब तो खुश..?"
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सब कुछ जल्दी जलदी हो गया। वो लोग भी ब्याह को राज़ी हो गए। उनको दहेज में भी कुछ नहीं चाहिए था। घर बार तो अच्छा था ही। मीना के पिताजी भी अब खुश थे।
दो महीने बाद का महुरत निकला था ब्याह का।
मीना और मंजू की खुशियों का ठिकाना ना था। दोनों सहेलियां अब जीवन भर साथ रहने जो वाली थी..।
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मीना अपने मन में नई उमंग और खुशियां लिए ससुराल में दाखिल हुई। छुई मुई सी कोमल मन और सुंदर नैन नक्ष की थी मीना। उसकी कोयल सी चहकती बोली थी। मंजू के साथ जीवन भर रहना भी तो था। अब तो यह हवेली दोनों सहेलियों की थी। अब आखिर दोनों बहने जो बन गई थीं।
सकुचाई सी मीना, सास के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेने गई। सास ने बड़े स्नेह से पास बिठाया और उसका घूंघट उठाया।
"हाय में मर जाऊं, कित्ती सुंदर दुल्हन है, महारे लखन के तो भाग खुल गए।" बलैयां लेते हुए सास बोली।
सभी बड़ी बुडियों में फिर कुछ खुसर पुसर होने लगी। इतने में लखन, यानी मीना का दूल्हा, कमरे में प्रवेश करता है। चारों ओर चुप्पी छा जाती है.. मानो सबको सांप सूंघ गया हो।
मीना को अजीब लगता है , फिर विचार आता है "लगता है लखन के खूब ठाट है। सब उससे डरते हैं और सम्मान करते है.. तभी तो इसके घुसते ही चुप्पी छा गई।" उसका मन मयूर खुशी से फूले नहीं समाता है... "मां बता रहीं थीं कि यदि पति की इज्जत हो तो उसकी पत्नी की और भी ज्यादा इज्जत होती है।"
"ये मंजू भी ना जाने कहां मर गई। मुझे यहां किनके बीच अकेला छोड़ गई है। मिलने दो .. ऐसी खरी खोटी सुनाऊंगी की बस" मन ही मन मंजू पर गुस्सा दिखाती मीना बुदबुदाई।
' आंखो में नींद भरी हुई है। शादी में मज़ा तो आया लेकिन बहुत थका भी दिया मुझे। मंजू ने मुझे पहले क्यूं नहीं बताया था। कहां सो जाऊं यह भी नहीं समझ आ रहा ' यही सोचते विचारते वह उनींदी सी होने लगी।
"अरी, बहन देख तो ज़रा। बहुरिया ठीक नहीं लग रही। दौरे वोरे पड़ते हैं का। देख तो कैसे आंखें ऊपर चढ गई हतें" पड़ोस की सुनीता बोली।
"मोय लगे बहुरानी थक गई है। चलो चलो री सब उसे आराम करन दो।" यह कह कर उसकी सास ने सभी औरतों को वहां से विदा करा।
मीना को उसका कमरा दिखाया और आराम करने को कहा। मीना बिस्तर देखते ही होश खी बैठी। पल भर में ही गहरी नींद में खो गई।
उसकी जब आंख खुली तब दीपक जल रहा था कमरे में, और खिड़की के बाहर अंधेरा दिख रहा था। "हाय राम .. कितनी देर सोती रही। किसी ने मुझे जगाया भी नहीं। मां तो मुझे कभी इतनी देर सोने नहीं देती।"
इतने में मंजू उसके कमरे में चाय का लोटा और ग्लास ले कर आई। आते ही मीना के गले लगी "मीना बहन .. देख कहा था ना अपने घर ले आऊंगी"
"हां.. और हवेली कित्ती बड़ी है। ऐसा तो मेने सपने में भी नहीं सोचा था। बाहर से अंदर कमरे तक आते आते ही में तो थक गई।"
और दोनों सहेलियां.. ना ना.. बहनें हंसने लगीं। मंजू इशारा कर मीना को चुप होने को कहती है।
"मीना इत्ता ज़ोर से ना हंस। सासूमां को पसंद नहीं है"
"में आ गई हूं ना। में सबको हसना सीखा दूंगी, तू चिंता मत कर" यह कह मीना ज़ोर ज़ोर से हसने लगी।
"दोनों यहां बैठ ठिठोली कर रही हो.. चलो समाज के लोग आते होंगे । यहां के भी तो रस्मे निभानी है" प्यार से झिड़कती मुनिया महरी बोली।
और रस्मों का कार्यक्रम शुरू हुआ। मीना को ना जाने क्यूं अब मां की याद सताने लगी थी।
मीना सब रस्मे निभा तो रही थी.. रह रह कर मां को याद कर रही थी।
' कितनी रस्मे करनी हैं.. सब मुझे ही क्यूं करना है.. लखन का भी तो ब्याह हुआ है। उसको भी तो रस्मे करनी चाहिए.. सब मुझे ही करना पड़ रहा है।' मन ही मन लखन को कोसती मीना बड़बड़ाई।
"ब्याह से लेकर अब तक लखन ने एक शब्द नहीं बोला था। रास्ते में जब बैलगाड़ी में चोटी फंस गई थी तब भी निर्मोही लखन ने मदद नहीं करी। कैसे मीठे बेर की झाड़ी थी.. वो भी नहीं दिए तोड़ कर। पीछे की गाड़ियों में तो सब बेर तोड़ रहे थे और खा भी रहे थे। मंजू ने मुझे एक भी बेर नहीं खिलाया।" बेचैन हो मीना अपने आप से ही बतिया रही थी।
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हफ्ता बीत चुका था ब्याह का। सब अपने काम में मशगूल थे। मीना ने भी हवेली के काफी कोनो को देख लिया था, नहीं देखा था तो.. लखन को।
" ना जाने कहां रहता है लखन.. कभी दिखता ही नहीं। एक दिन मेरे साथ खेलने भी नहीं आया। मंजू भी ज्यादा नहीं खेलती। गांव में ही अच्छी थीं.. वहां जी भर कर झूला झूलती थी। यहां झूला तो है लेकिन झूलने की इजाजत नहीं है। अजीब घर है.. "
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"सुना है लखन ने बहुरिया का मुखड़ा तक नहीं देखा? एक बार देख लेता तो दीन दुनिया भूल जाता। इत्ती सुंदर बहुरिया है। में कहूं किसी भी तरह उसकी एक नजर पड़वा दो.. देखना सब ठीक हो जाएगा।" महरी अम्मा बोली
"अरि.. चुप कर मरी। अभी थोड़ा वकत तो बीतने दे.. बकत सब ठीक कर दय है। लखन भी गृहस्थी में पड़ जाएगा.. जैसा राम पड़ा है। मंजू को देखते ही बावला जो गया था।" सास बोली
"जे तो सही कह रही हो.. अच्छा बहू घर कब जा रही है.. मुझे उसके साथ जाना पड़ेगा ना। जाई से पूछ रही हूं। .... बैसे एक बात तो बताओ.. लखन बहुरिया को लीवाने तो आ जाओगा ना..?" प्रश्न वाचक मुद्रा में महरी ने पूछा।
कुछ ठिठकते हुए सास बोली.." घर तो भेजना है.. बस उससे पेले एक बार लखन इसका मुखड़ा देख लेता तो सब ठीक हो जाय। अब लिवा तो लाएगा ही.. इत्ता तो हमारा मान रखेगा"
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शाम को मीना, मंजू के साथ गट्टे खेल रही थी। तभी लखन वहां से गुजरा। मंजू ने कोहनी मारी और मीना से कहा.." जा री मौका अच्चो है। कर ले सब शिकायत अपने पति से।" और हंसते हुए वह वहां से भाग गई।
"लखन सुनो...? " मीना ने पुकारा
लखन ठिठक कर रुक गया लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोला।
"तुम मुझसे बात क्यूं नहीं करते..?"
"क्या रखा है बातों में.. जीवन पथिक हैं हम .. मंज़िल को पाना है .. लक्ष्य यहीं साध लो... तब पार होगा यह भवसागर।" लखन शांत स्वर में बोला
"क्या बोल रहे हो लखन.. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा" परेशान हो मीना बोली
" प्रभु प्रेम ही सब कुछ है.. जीवन धारा को वही मोड़ो .. जैसे मेने मोड़ा है। उसकी भक्ति ही सबसे बड़ी तपस्या है। हरी बोल.." और हाथ माला को घुमाता लखन वहां से चला गया।
मीना को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि लखन क्या कहना चाहता है..
हफ्ते भर बाद मीना को महरी के साथ उसके घर भेज दिया गया। वो सूनी आंखो से, मौन हो अपने घर को चली।
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मीना को ससुराल से घर आए हुए पंद्रह दिन बीत चुके थे।
"क्या हो गया है हमारी मीना को.. पूरे बकथ जो हंसती मुस्कुराती थी वो इतनी सांत कैसे हो गई। मंजू जब पहली बार घर आई थी तब कितनी चहक रही थी.. हमार मीना कों क्या हो गया।" परेशान पिता ने मीना की मां से पूछा।
"अरे छोरियां अब बहू बन गई है। हुमार मीना का दिल साफ है , जल्दी ही हर बात घर कर जावे। बिटिया से बहू का सफर तय कर लो दिखे" मां ने उत्तर दिया।
" बो सब तो ठीक है.. पर फिर भी.. उसका दिल टटोला एक बार भी तुमने?? बो खुस तो है ना। लड़ कर तो ना आ गई ??।"
" तुम बस गलत ही सोचो। लड़े हूमार दुस्मन। याद करती होगी दामाद जी को । जाई से इत्ती चुप है"
" काश तुम जो कह रही हो वही सही हो। महरी भी इसे यहां छोड़ उसी दिन बापिस चली गई थी। कछु बताया भी ना। कब तक आएंगे दामाद बाबू इसको लीवानें"
" अब छोरी तो उन्ही की हो गई है .. आईं है तो तनिक रह लेन दो ना.. । आप भी बस समझ ना आओ मोए। जब ब्याह का बोला तो मना करते रहे अब छोरी घर आई तो भेजने में लगे हैं।" नाराजगी दिखाते मीना की मां बोली।
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मीना सब सुन रही थी। वो उन्हें कैसे बताए कि लखन तो किसी ओर का हो चुका है। उसने तो भक्ति का रास्ता अपना लिया है। प्रभु के अलावा उसे कुछ दिखता ही नहीं। उसने तो ढंग से बात तक ना करी और जो करी वो कुछ समझ ना आईं।
दिन महीने में बदल गया.. महीना दूसरे महीने में.. सावन भी आ गया .. ससुराल वालों ने कोई खबर नहीं ली।
मीना का पिता चिंतित हो गया था सो मन में ठान ली की कल उसके सासरै जा कर पता करेगा।
दूसरे दिन तड़के ही वो मिठाई और फल का टोकरा लिए बैलगाड़ी पर निकाल गया।
वहां उसके ससुराल में खूब स्वागत हुआ। अच्छे से उसका सत्कार करा। भोजन का भी आमंत्रण दिया।
" माफी चाहूं में.. बिटिया के घर का पानी भी पाप है। चिंता न करो में अपनी रोटी और छाच साथ लाया हूं। बस इत्ता बता दो बिटिया को लीवाने दामाद जी कब आवेंगे..? " हाथ जोड़ विनम्रता से उसने पूछा।
इतना सुनते ही सबके सर झुक गए।
" का बताएं .. हमसे बड़ी गलती है गई। मीना का जीवन हमने बर्बाद कर दयो। लखन सन्यासी हो गया था। हमने सोची मीना की खब्सूर्ती देख गृहस्थ हो जाएगा .. बल्कि उल्टा हो गया। बो तो यहां से चला गया.. कह कर गया है मीना को वही जवाब देगा। आप कभी भी उसे यहां छोड़ जाएं .. अब वो हमारी बिटिया है।"
मीना के पिता निरुत्तर हो गए थे। उनसे समय और मीना की इच्छा पूछकर बताएंगे कह कर वापिस घर को चल दिए।
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"हाय जे का हो गया हमार लल्ली के साथ। इतना बढ़िया घर मिला.. लेकिन दामाद जी ऐसे निकलेंगे का पतो था" सर थाम कर मीना कि मां बैठी थी।
" में वहां नहीं जाऊंगी मां .. जब तक लखन लेने नहीं आएगा.. यही मेरा फैसला है.." अपनी बात रखते हुए मीना बोली।
अब वो बच्ची नहीं थी.. सच मे बड़ी हो गई थी.. किसी की पत्नी थी.. और अपने आत्मसम्मान के लिए अपने फैसला लिया था...
अब उसके जीवन का एक ही उद्देश्य था ... लखन के खत या खुद उसका... इंतजार.....
सिर्फ इंतजार.........।
..... समाप्त.....