Tuesday, March 31, 2020

वीर ग्रहणी



सुनो सुनो ....
... घर घर की कहानी ,
      जहाँ डटी है वीर ग्रहणी .......
      

पापा की परी और सइयां की रानी
सो फीसदी बनी नौकरानी
घिस घिस बर्तन, घिस घिस कपडे
सूख गए हैं अब हाथ उसके

जिन हाथों में लहराती थी कलम कभी
आज थामे झाड़ू और करछी

ब्यूटी पार्लर के वे करिश्मे
जिसमे सफ़ेद बाल भी लगते काले
मुंह चिड़ा उससे बोले
घास फूस से हुई हैं भौंवे
बिन ब्लीच लगती जैसे 'कौवे'

कमर टूटी, दर्द से तड़पी
'कोरोना' के केहर से लिपटी

बेरहम swiggy , zomato ने छोड़ा साथ
किचन में ना दे रहा कोई हाथ
pizza , burger , परांठा और रोटी
दिनभर बाजे कूकर की सीटी

 सुनो सुनो ....
... घर घर की कहानी ,
      जहाँ डटी है वीर ग्रहणी .......।

~ ३०/०३/२०२०~


©Copyright Deeप्ती

स्वच्छ



हटा जहरीले धुएँ का बादल
झाँक रहा नीला गगन ये पागल।

स्वच्छ हवा सँग लहराती पत्तियाँ
मधुरिम कुहक गुंजाती चिरईयाँ।

अनगिनत हीरे जड़ित सी रात
मुस्काते चाँद से करे मीठी बात।

पँछी, पत्ती और जन्तु हरेक
चहुँ ओर छाई खुशहाली अनेक।

~ २९/०३/२०२० ~

©Copyright Deeप्ती

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र

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कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर हुआ था एक ऐतिहासिक धर्म युद्ध - कौरव और पांडव के बीच में - जो आज तक सभी के दिलो दिमाग पर छाया हुआ है।

युद्ध के पहले दिन अर्जुन ने देखा की उसके सामने खड़ी विशाल सेना है जिसमे उनके भीष्म पितामह , उनके गुरु द्रोणाचार्य  ,अश्वथथामा , उनके अनेक भाई व् रिश्तेदार हैं।

अचानक उनको भीषण वेदना ने घेर लिया और उन्होंने जाना की वे यह युद्ध नहीं लड़ना चाहते हैं।
"सिर्फ ज़मीन के एक टुकड़े के लिए में अपने प्रियजनों के साथ युद्ध नहीं कर सकता । नहीं यह युद्ध में नहीं करूँगा "
ये सोचते हुए उन्होंने अपना धनुष और अन्य शस्त्र नीचे रख दिया और अपना निर्णय श्री कृष्ण को बताया
"हे कृष्ण ! ये पाप है।  में अपने प्रियजनों के साथ युद्ध नहीं कर सकता।  सामने तो सब अपने खड़े हैं उनसे कैसा युद्ध "

कृष्ण जान चुके थे अर्जुन के मन में  दुविधा चल रही है।  उन्होंने अपना असली विशाल विश्व स्वरूपं अर्जुन को दिखाया


में ही निर्माता , रक्षक व् विध्वंसक 
में ही सर्वोच्च, में ही सूक्ष्म 
पूरा संसार मेरी इच्छा अनुसार चलता है 
मेरे इस रचाये हुए नाटक के तुम सिर्फ एक किरदार हो
जो भी कार्य सौपा जाये उसे अच्छे से करना तुम्हारा धर्म है 
तुम अपना कर्म करो , फल की चिंता मुझ पर छोड़ दो 
सब कुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए 
में भूत , वर्त्तमान और भविष्य सब जानता हूँ 
में हर जगह हूँ। 
में और कोई नहीं, 
में श्विष्णु हूँ । 




Thursday, March 5, 2020

नदी




नदी बन बहुँ में मस्त
अठखेलियाँ खाऊँ पर्वत के समस्त
चंचल मन , यौवन तन
इधर उधर इठलाऊँ में

देखो, गुस्सा ना दिलाना
पागल मुझको ना बनाना
एक बार जो बिफर गयी
हाथ ना में फिर आऊँगी
कर के नष्ट सब रोडो को
आगे बढ़ती जाऊँगी

रुकना मैंने सीखा नहीं
बाँध ना मुझको पाओगे
बाहों में भरना जो चाहो
हाथ से फिसल में जाऊँगी

समझा क्या है तुमने मुझको
आज़ाद नदी हूँ में
बहना मेरा काम है
रुकने से अनजान हूँ 
नदी हूँ , एक शीतल
अल्हड़ नदी हूँ में ।




~~07/05/08~~

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