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राजा महेष्वती के दरबार में अनेकों बुद्धिजीव थे। उनमे से एक दरबारी हमेशा हर बात पर "प्रभु इच्छा - सब उसके हाथ में है " कहता था। तो वहीँ दूसरी ओर दूसरा दरबारी कहता था "जो राजा की इच्छा - सब उसकी मेहर है "
राजा के लिए दोनों ही प्रिय दरबारी थे परन्तु हमेशा सोचता की किसके शब्द सच्चे हैं। वो हमेशा यही जाने की कोशिश करता की आखिर सच क्या है ? क्या प्रभु इच्छा सबसे बड़ी है या खुद उसकी इच्छा। इस सवाल का हल ढूंढ़ने का उसे एक तरीका मिला। उसने तुरंत दो कद्दू लाने का हुक्म दिया। एक को बड़ी सावधानी से कटवाया और उसे खाली कर उसमे हीरे जवाहरात भर दिए और फिर उसे ठीक पहले की तरह ही जुड़वा दिया। और दुसरे कद्दू को वैसा ही छोड़ दिया।
अगले दिन, राजा ने दोनों बुद्दिजीव दरबारियों को बुलवाया और साधारण कद्दू 'प्रभु इच्छा' कहने वाले को दे दिया और दूसरा हीरे जवाहरात वाला "राजा इच्छा ' कहने वाले को प्रेम और आदर के साथ दिया। दोनों अपने अपने कद्दू अपने साथ घर ले गए।
दुसरे दिन दरबार लगा और राजा ने दुसरे वाले दरबारी से उसके कद्दू का स्वाद पुछा। दरबारी इधर उधर बगलें झांकने लगा। फिर कुछ देर पश्चात उसने अपनी गलती स्वीकार करते हुए क्षमा मांगी और कहा "हुज़ूर माफ़ कीजियेगा घर पर बहुत सारे कद्दू हमारे ही खेत के थे सो मैंने आपके उपहार को बाजार जा कर बेच दिया। मुझसे गलती हुई आपके स्नेह से दिया हुआ उपहार मैंने बेच दिया मुझे माफ़ कर दीजिये "
राजा ने माफ़ करते हुए हुक्म दिया की जाओ जा कर उस सब्ज़ी बेचने वाले को ले कर आओ जिसने उसे खरीदा था। उनके आदेश को मानते हुए तुरंत दो सिपाही उस सब्ज़ी वाले को दरबार में ले कर आ गए।
"घबराओ मत। हमे सिर्फ इतना बताओ वह कद्दू किसको बेचा है " राजा ने डर से कापंते हुए सब्ज़ी वाले से पुछा।
"महाराज उसकी बनावट इतनी सुन्दर थी की अच्छे दाम दे कर कपडे का व्यापारी उसको पूजा के लिए ले गया "
"उस व्यापारी को पेश करा जाये " राजा ने फिर आदेश दिया।
दरबारी उस व्यापारी को पकड़ कर लाये और उससे भी वही सवाल करा। उसने बताया की उसने गृह शांति के लिए पूजा करवाई थी इसलिए उसने अपने पुजारी को वह दान में दे दिया है।
"तो ठीक है उस पुजारी को यहाँ हमारे समक्ष आदर समेत लाया जाये "
"अरे महाराज कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है क्यूंकि पुजारी जी तो पहले से ही हमारे बीच में मौजूद हैं। " व्यापारी बोला।
"अच्छा ! पुजारी जी कृपा हमारे सामने आइये " खुश हो कर महाराज ने आग्रह करा
तुरंत उनके समक्ष वो बुद्धिजीव आ गया जिसको उन्होंने साधारण कद्दू उपहार में दिया था और जो हमेशा हर बात पर "प्रभु इच्छा" कहता था।
वो मुस्कारते हुआ बोला "हाँ महाराज दान में मुझे ही इन्होने कद्दू दिया था। और जब मेरी पत्नी ने पकाने के लिए उसे काटा तो देखा की वो तो हीरे जवाहरात से भरा हुआ था। प्रभु की लीला तो अप्रमपार है "
राजा की आँखे खुल गयी और वो उस पुजारी के समस्त नतमस्तक हो गए। दूसरा दरबारी जो राजा को अपना दाता मानता था वो भी उसके चरणों में गिर गया और क्षमा मांगते हुए बोला "मेरी आँखे खुल गयी आज। प्रभु से बड़ा कोई दानी नहीं है इस पूरे संसार में। जो जिसके भाग्ये में है उसे कोई छीन नहीं सकता और जो नहीं है वह पा कर भी पा नहीं सकता "
सब उसकी महिमा है। हम सब आपके सामने नतमतस्तक हैं प्रभु हमे अपने प्रेम से यूँ ही संभाले रखना।
"जय जय जय हो महा प्रभु की। सब रब दी मर्ज़ी है।
बिस्वासी हवै हरि भजय, लोहा कंचन होय
राम भजे अनुराग से, हरख सोक नहि दोय।
जो हरी का नाम पूरी श्रद्धा और आस्था से लेते हैं उनके लिए लोहा भी सोना बन जाता है
जो राम नाम भजते हैं उनको सुख दुःख सामान लगते हैं।
~ १९/०८/२०१९~