Sunday, November 21, 2021

ख्वाब


ख्वाब में हम मिले थे तुमसे
तुम वहां दीवार से सट कर खड़े थे
होठों पर हल्की मुस्कान लिए
मुझे ही निहार रहे थे

कहो ना प्रिय
मन की बातें मुझसे
कुछ ना रखो दिल में
हर भावना बह जाने दो

में भी बैठी थी नदी किनारे
करती तुम्हारा ही इंतजार
कैसे पहला कदम बढ़ाती
मन की बगिया पुलकित थी

कहो ना प्रिय
खोल दो राज उस मुस्कान के पीछे
धड़कन बढ़ने लगी है 
कुछ सुनने को तरसी हैं

ख्वाब में ही सही
हुई तो मुलाकात हमारी
शब्दों ने ना लिया रूप
दिल ने फिर भी हर बात समझी

©Deeप्ती


Sunday, September 19, 2021

हमारा सच्चा दोस्त


मनुष्य जीवन में कई दोस्तों से मिलता है। लेकिन जानते हैं सबसे प्यारा दोस्त हमारा , हम खुद होते है। हमारी अंतरात्मा हमे पल पल सही दिशा दिखाती है। वही हमारी सच्ची दोस्त है।

बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे. उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा करते थे।

वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,

“आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं।”

आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।

ऋषिवर बोले , “प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है. मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें.

यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा.”

*तो क्या आप सब तैयार हैं?”*

” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले.

दौड़ शुरू हुई.

सभी तेजी से भागने लगे. वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे. वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था.

सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।

“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न किया।

यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े…. इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की.”

“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ”, ऋषिवर ने आदेश दिया.

आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे. पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे. सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे.

“मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं.” ऋषिवर बोले।

“दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था , और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को मेरा इनाम है।”

पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है. पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है.

अतः यहाँ से जाते -जाते इस बात को गाँठ बाँध लीजिये कि आप अपने जीवन में सफलता की जो इमारत खड़ी करें उसमे परोपकार की ईंटे लगाना कभी ना भूलें , अंततः वही आपकी सबसे अनमोल जमा-पूँजी होगी।”

जीवन में हमारा सबसे प्यारा दोस्त खुद हम ही होते हैं। हमारे कर्म हमे अपने से प्रेम करना सीखते हैं। जब हम अपने आप से प्रेम करना सीख जाते हैं तब विश्व की हर वस्तु से हम प्रेम करने लगते हैं।

Tuesday, June 15, 2021

अलविदा

घुंघरू से खनकते होंगे बोल
चट्टान से फौलादी होंगे वचन
मां के आंसुओं का ना था वजूद
बागीचे मे तब खिलते थे गुलाब 
कैक्टस का ना था हिसाब

कितना कुछ समेट रखा था 
ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
बोली भी नहीं पाई थी सीख
क्या मांग नहीं सकते थे 
जीवन की अपने भीख?

जाना तय ही था, तो 
मां के आंसू भी ले जाते
हमारे सारे सपने भी ले जाते
यह जो टीस है ना दिल में मेरे
वो भुलाए नहीं भूल पाती में

ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
अलविदा हम कह ही ना पाए
ना ही कभी कह पाएंगे
स्नेह भरा हाथ तुम्हारा
सदा सर पर ही पाएंगे।
15/06/2021
©Deeप्ती

Tuesday, June 8, 2021

सुनसान घर


सं १९३०

कभी उस आंगन में ढेरों किलकारियां गूंजा करती थी। कितना गर्व था हरिप्रसाद को अपने पूरे परिवार को हंसते खेलते देख कर।

हरिप्रसाद, एक छोटे से गांव सोंक से शहर आए थे। दिन में छोटे मोटे काम कर लेते थे, शाम को सड़क की बत्ती के नीचे ही अपना बिस्तर जमा लेते, फिर शुरू होता उनका पढ़ाई का कार्यक्रम। वो पूरी लगन से पढ़ाई करते थे। 

उस ज़माने में खुद पढ़ाई करना और इम्तिहान में बैठ जाना, आम था। वक्त बीतता गया और वो पूरी लगन और निष्ठा के साथ दोनों काम बखूबी करते रहे। अपने महनत से उन्होंने दांतों की डाक्टरी पूरी करी।
वहीं बाज़ार में छोटी सी क्लीनिक खोल ली। 

पैसे इकट्ठे कर के जुगाड़ लगाई और एक आलीशान कुर्सी भी खरीदी। जो ऊपर नीचे हो जाती थी, जिसपर मरीज़, बैठ अपने दांत दिखाते थे। वे बड़ी लगन से सब मरीजों का इलाज बखूबी करते रहे। जल्द ही वो अपने शहर के जाने माने दंत चिकित्सक माने जाने लगे।

इस बीच उनकी शादी ,बैकुंठी, से हो गई थी। जो सुंदर ही नहीं बल्कि ग्रह कार्य में निपुण भी थी। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी परन्तु , डाक्टर साहब के साथ रह कर उनसे काफी कुछ पढ़ना सीख गई थी। घर में दो नन्हे पुत्रों की किलकारियां गूंजने लगी थी। इस बार बड़ी आस थी कि पुत्री आ जाए। और हुआ भी ऐसा ही, उनकी गोद में नन्ही परी आ गई।

वक्त गुजरता रहा। डाक्टर साहब को, अपना कोई परिवार याद ना था, इसलिए वो खूब बड़े परिवार की कामना करते थे। उनका घर आंगन अब तीन लड़के और पांच लड़कियों से भर गया था। 

अहा , कितना मधुर संगीत सा प्रतीत होता था, उनका आंगन। घर में घुसते ही जो मधुरम किलकारियां सुनाई देती, तो उनका रोम रोम पुलकित हो जाता। जो कमी उन्होंने बचपन में महसूस करी थी - अकेलेपन की, वो अब पूरी हो गई थी।

घर आंगन गूंजित था
नन्ही बोलियों से
हर कोना जग मग था
बच्चों की मुस्कान से

उनका सीना फूल ना समाता, जब वे घर पहुंचते और सब बच्चे उन्हें चारों ओर से जकड़ लेते, कहते " बाबूजी, बाबूजी - आज क्या लाए हो हमारे लिए?" फिर वो चुपके से जलेबी की पुड़िया अपनी लाड़ली बैकुंठी को थमा देते। "जा बच्चों में बांट दे"

छोटी छोटी खुशियों से भर गया था घर संसार उनका। वक्त का पहिया अपनी गति से बहता रहा। और धीरे धीरे घोंसला छोड़ उनके पंख पसारने का वक्त आया। एक के बाद एक, सब पंछी उड़ गए अपने अपने टुकड़े के आसमान को ढूंढ़ने। 

आंगन सूना हो गया। वो अपनी बैकुंठी के साथ अकेले रह गए। दस कमरों का विशाल घर अब काटने को दौड़ता था। हर कोना अंधकार की गलियों में खो गया था। बागीचे का वो आम का पेड़ अपनी बाहें और फैला रहा था, मानो दूर उड़ते बच्चों को समेटना चाह रहा हो। उसकी बाहें भी अब बेजान सी इंतजार करती है, कभी तो फिर यह आंगन महकेगा। उसके आम का रस फिर मिठास घोलेगा।

हरिप्रसाद, नितांत अकेले उस आम के सहारे जीवन बसर करते बांट जोतते रहते है। बैकुंठी भी तो ना रही अब। उनका आंगन बेहद सूना हो गया। 

डाकिया आता था उनके साथ वक्त गुजरने, कभी कभी। आज हरिप्रसाद का मन बेचैन था । डाकिए ने आवाज़ दी तो हरिप्रसाद अनायास ही बोल पड़े
"अब यहां कोई नहीं रहता।"

********

सफेद रूह


रूही किन्हीं खयालों में खोई चली जा रही थी। आज मीना जो उसकी सहेली है उसने बड़ी ही विचित्र बात बताई। क्या ऐसा सच मे हो सकता है भला?? 

*********कुछ देर पहले*******

मीना :- रूही पता है कल मेरे बाबूजी रेल से वापिस घर आ रहे थे। चंदन घाटी से रेल गुजरने वाली थी। वहीं चंदन घाटी जहां प्रेत आत्माएं बस्ती है" 

रूही :- " प्रेत आत्माएं...??? वो क्या सच में होती है..? हुंह में नहीं मानती। ऐसा भी कभी कुछ होता है भला। आत्मा सिर्फ आत्मा होती है। प्रेत व्रेत कुछ नहीं होता।"

मीना :- होता है रूही, ज़रूर होता है। अब तेरे मानने ना मानने से थोड़े ही कुछ होता है। मेरी पूरी बात तो सुन ना। फिर तय करना क्या सही है क्या झूठ। ठीक है..??

रूही ने अपनी गर्दन हां में हिलाई तो मीना ने आगे कहा।

" हां तो ट्रेन चंदन घाटी के पास पहुंचने वाली थी। सभी यात्रियों ने अपनी अपनी खिड़की बंद कर ली थी। तू तो जानती है मेरे पिताजी इन सब में विश्वास नहीं करते, सो उन्होंने अपनी खिड़की बंद नहीं करी। वो अपनी किताब पड़ने में मशगूल थे। तभी ट्रेन घाटी की सुरंग से गुजरने लगी। पल भर में ही ट्रेन में अंधेरा छा गया।"

"अंधेरा कैसे छा गया..? जब ट्रेन सुरंग में जाती है तो ट्रेन की सभी बत्तियां जल जाती है ना.. कुछ भी बोलती है मुझे डराने के लिए" रूही ने तुरंत मीना को टोक दिया।

" हां .. वही तो। मैने भी बिल्कुल यही कहा था जब पिताजी ने यह किस्सा सुनाया था। तब उन्होंने बताया की सभी परेशान थे कि बत्ती अपने आप जली क्यूं नहीं.. की अचानक, एक ज़ोर का झटका लगा, एक दो पल के लिए सभी अस्त व्यस्त हो गया था। अंधेरा था तो कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था। फिर दो चार पल बाद ट्रेन सुरंग से बाहर आ गई। ट्रेन की गति धीमी हो गई थी और धीरे से चिं.... चीं... करती वो रुक गई।"

"क्यूं रुक गई..? तुम तो बता रही थीं कि सभी डरते थे उस इलाके से .. फिर ट्रेन क्यूं रोक दी ड्राइवर ने..?"

" यही जानने के लिए कुछ यात्री उतरने लगे..इतने में पिताजी की नजर अपनी किताब पर गई जो वो पढ़ रहे थे.. वो गायब हो गई थी।"
" हुंह झटके की वजह से गिर गई होगी, सीट के नीचे चली गई होगी"

"अरे सुन तो बाबा। ऐसा ही पिताजी ने भी सोचा , तो वो इधर उधर नजर घुमाने लगे - सीट के नीचे देखा, पीछे देखा, यहां तक कि खिड़की के बाहर भी देखा। की कहीं झटके से उछल कर बाहर तो नहीं गिर गई। वो गायब हो गई थी... गायब... सच्ची"

"हुंह तो क्या हुआ एक किताब ही तो थी, गिर गई होगी। किसी के समान के नीचे फंस गई होगी। इसमें इतना घबराने की क्या बात है..?" 

" बात है। तभी तो बता रही हूं। हां तो जो यात्री उतर गए थे ट्रेन के रुकने का कारण जानने के लिए। वे इंजन तक पहुंच गए। ड्राइवर भी नीचे उतर चुका था और कुछ विस्मय से पटरी को देख रहा था।

वहां पहुंच कर लोगों ने पूछा क्या हुआ.. ट्रेन क्यूं रोक दी?? तब ड्राइवर ने पटरी पर इशारा करा। तब तक पिताजी भी वहां पहुंच चुके थे, उन्होंने देखा कि पटरी पर थोड़ा राल रंग पड़ा है और इस पर कुछ कागज फड़फड़ा रहे हैं। पास जा कर देखा तो वो कोई लाल रंग नहीं था बल्कि ताज़ा खून था। हां सच्ची। खून की महक होती है ना तो उसी से पहचाना।"

" कोई जानवर कट गया होगा ट्रेन से..? बेचारा.. च.. च.. च.." 

"अरे नहीं। ट्रेन तो पहले ही रुक गई थी कटता कैसे। कोई जानवर भी नहीं था वहां। ड्राइवर ने बताया कि उसने किसी को पटरी पर सोते देखा था दूर से, सो उसने ट्रेन को रोक दिया। लेकिन जब उतर कर देखा तो कोई नहीं था बस खून था और पास में एक किताब थी।

जानती हो वो किताब कौनसी थी?? वहीं जो पिताजी पढ़ रहे थे" मीना ने अपनी आंखे बड़ी करते हुए आखिरी बात बताई।

"वहीं किताब थी..? सच्ची..??" अब रूही की रूह कांपने लगी। 

"चल रूही अब मैं घर जाती हूं। पिताजी को अच्छा नहीं लग रहा है, जब से लौटे हैं बहकी बहकी बातें करने लगे है। डाक्टर बाबू को बुलाने जा रही थी में। अंधेरा होने से पहले घर पहुंचना है मुझे तो।" मीना तेज़ी से साइकिल को पेडल मार दवाखाने की ओर चली गई।

रूही की जान हलक मे आ गई थी। "मीना फिर कोई कहानी तो नहीं बना रही? मीना को आदत है किस्से कहानी गड़ने की। वैसे भी बड़ी जीवंत कहानियां सुनाती है.." घबराती हुई रूही अपने घर की ओर चल दी। उसका घर वैसे भी उस विशाल पीपल के पास से गुजरता है, जहां सुना है की प्रेत आत्माएं रहती है। 

वो कदम जल्दी जल्दी बढ़ाने लगी। तभी अचानक तेज हवा सर्र सर्रर... करती चलने लगी। वातावरण में अजीब अजीब आवाजें थी साथ में भयानक खामोशी भी। रूही को लगा मानो कोई उसके पीछे है। वह अपनी गति और तेज करती है, ऊपर बादल भी छा गए थे।

अचानक उसकी नजर दूर से एक सफेद आकृति पर गई जो तेज़ी से उसकी ओर आ रही थी। उसने भागना चाहा लेकिन कदम साथ ही नहीं दे रहे थे। चीखना चाहा, लेकिन आवाज़ हलक में अटक गई थी। 

वह भूतिया आकृति उसकी ओर तेज़ी से आ रही थी.... तेज़..... बहुत तेज़......

"आह... आ..आ" रूही ठोकर खा ज़मीन पर गिर गई थी, घुटने से खून बहने लगा। उसकी परवाह ना करते हुए वो उठी और भागने लगी घर की ओर... सफेद आकृति काफी करीब आ गई थी। घनघनाती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ के साथ एक शैतानी हंसी हंसते हुए......।

रूही के हाथ पांव फूल गए थे, सर से पांव तक पसीने से तरबतर हो गई थी। अब कदम आगे नहीं बढ पा रहे थे, वो वहीं धरती पर अचेत हो गई। 

जब आंख खुली तो देखा.. सामने मीना बैठी है उसके घुटने पर पानी डाल रही है।

"मीना... वो.... वो... मेरे पीछे आ रही थी...??"

"अरे कोई नहीं था रूही। में ही आ रही थी।"
"लेकिन..... लेकिन वो सफेद थी... पांव भी नहीं थे"
" मैं ही थी.. तुझे डरा रही थी.. साइकिल पर सफेद चादर ओढ़ कर आ रही थी.. " कह कर मीना ज़ोर से खिलखिला के हंस दी.. 

"बुद्धू, कहानी सुना रही थी में। इतना भी नहीं जानती क्या मुझे..?" 

******

खोना

कॉरोना काल ने कितनों को लील लिया। ऐसा लगता है भगवान को बहुत सारी आत्माओं के साथ रहने का मन है। 

जीवन में हमे कितने ही लोग मिलते है, लेकिन उनमें से कुछ ही होते है जो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है। 

वो एक सिहनी सी 
चपल हिरनी सी
ऊर्जा की थी अथाह सागर
ममता से भरी गागर
हिम्मत से बड़ना हमे सिखाया
वजूद को अपने पहचानना बताया
जो पहचान मेरी आज है
वो सब तेरी ही देन है 
एक नजर देख भी ना पाए
अंत में तुझसे मिल भी ना पाए
भूल जाना चाहे इस जग को
लेकिन हम ना भूलेंगे तुझको
अपने बढ़ते हर कदम पर
याद करते रहेंगे तुझको।

मेरी गुरु तुम्हे प्रणाम। जीवन भर में आप के जैसा ना गुरु मिला है और शायद ना ही आगे मिल पाएगा। 

में एक caterpillar की तरह अपने cacoon में बंद थी। वो आप ही थी जिसने मुझे निकाला बाहर वहां से, पंखों से मेरे, पहचान कराई। कितना कुछ सीखा है आपसे अपने विषय के बारे में और जीवन के भी बारे में। जहां भी रहें आप, अपनी प्रेरणा देते रहना।

हरी ॐ

Saturday, June 5, 2021

रंग रसिया


"ऐ छोकरी! यहां आ... ऐसे का टुकर टूकर देखत रही.. कभाऊ आंदमी ना देखत बा का??" , हाथ रिक्शा से उतरते हुए हंस्मुखलाल बोले।

मुनिया ने बहुत आदमी देखे थे ... लेकिन ये बाबू जैसा कोई नहीं देखा था। बड़ी बड़ी गोटि जैसी आंखें,  जिसपर काले फ्रेम वाला बड़ा सा चश्मा था। बाल अस्त व्यस्त हो कर चेहरे पे यूं बिखर गए थे जैसे थाली में चावल डाले हों। कमीज़ की जेब फटी हुई थी.... और पतलून भी ऐसी लग रही थी मानो कुश्ती लड़ कर आ रहे हो। हाथ में बड़ा सा टीन का बक्सा था ।

गठीला बदन और चाल बड़ी चुस्त थी... होती क्यूं नहीं आखिर फौजी जो था....

हंसमुख थोड़ा झेंप सा गया मुनिया को यूं घूरते देखकर.. अपनी हालत पर पहले से ही परेशान था.. उस पर से मुनिया की हल्की भूरी आंखें, गुलाब की पंखुड़ी से नाजुक होठ.. लम्बी चोटी, जिसके कुछ लट जो छोटी थीं वे उसके कानो पे अठखेलियां कर रहीं थीं। उसका योवान मानो किसी का इंतजार कर रहा हो... वो खुद उसको अपलक देखते रह गया.. 

फिर थोड़ा संभालते हुए.. नरमा के बोला..." पहले तो कभी नहीं देखा.. कौन हो तुम???" 

वो खिलखिलाकर कर हंस पड़ी मानो उसने सवाल नहीं करा हो वरन् कोई चुटकला सुनाया हो।

"क्या हुआ... मैने कुछ गलत कहा क्या?? "
वो कुछ नहीं बोली बल्कि उसके फटेहाल कपड़ों की तरफ इशारा कर हाथ हिलाया .. मानो पूछ रही हो ये हाल कैसे हुआ??

हंसमुख फिर से झेंप गया.. आंखें नीची कर कुछ शर्माता सा बोला " वह क्या है.... स्टेशन से उतरते ही मेरा पांव कचरे के डब्बे में फंस गया... और, मैं उसी पर गिर गया... 4 लोगों ने मुझे पकड़ कर बाहर निकाला, उसी में मेरी यह हालत हो गई।"

यह सुनते ही, मुनिया और जोर जोर से हंसने लगी, और हंसते हुए ही वहां से भाग गई।

उसकी कोयल सी बोली कि कल्पना, हंसमुख के दिलो-दिमाग पर छा गई, रसिया तो वह हमेशा से था इस बार उसका दिल, मुनिया पर आ गया था.. 

हंसमुख ने कई बार.. मुनिया से बात करने की कोशिश करी ...आखिर सिर्फ 10 दिन की ही छुट्टी पर तो आया था लेकिन हर बार, मुनिया सिर्फ हंसती और वहां से चली जाती... उसने मीठी वाणी अभी भी नहीं सुनी थी.. इस बार..... रसिया कुछ अलग ही रंग में डूबने लगा था... शायद, प्रेम का रंग था.. लेकिन, एक तरफा था... किसी भी हाल में, मुनिया उसे घास ही नहीं डाल रही थी... जादू चलाना पड़ेगा.....

प्रेम रंग में डूब कर हंसमुख रसिया ... बुझते कदमों से वापस अपने काम पर चला गया। अगली बार मुनिया को अपनी प्रेम रंग में डूबा कर ही मानेगा.... ऐसा प्रण कर लिया था.....

 हंसमुख अपने गांव से वापिस बॉर्डर पर पहुंच गया था.... इस बार सिर्फ उसका शरीर आया था मन वहीं  गांव में उस लड़की के पास रह गया था। 

" ना जाने उसका क्या नाम है?? में तो उसका नाम भी नहीं जानता। कितनी बार पूछा था .. लेकिन उसने कुछ बताया ही नहीं.. नाम क्या, उसने तो मुझसे कोई बात ही नहीं करी.. ना जाने, फिर भी, उसमे एक कशिश है जिसने मुझे उसका दीवाना बना दिया है " खाट पर लेटे हुए उसने सोचा.. आंखों में उसकी छवि उतर आई और नींद खी खुमारी उसे जकड़ने लगी..।

यहां सभी सुरक्षा सैनिकों के बीच भी,  ना जाने क्यों, इस बार एक सैनिक का जोश नहीं था उसमे.... एक मजनू सा, खो जाने का एहसास था .... ना जाने क्यों, रह रह कर उसे उस लड़की की आंखें याद आती थी.... रह रह कर...उसकी घुंगरू सी मीठी हंसी उसके कानों में खनक जाती थी...

वह, यहां आ गया था ... लेकिन उसका दिल वही रह गया था। कैसे भी कोई उपाय हो और उसे घर जाने को मिल जाए... यही सोचते सोचते उसकी आंख लग गई...।

तभी महसूस हुआ कि कोई उसे झंझोड़ रहा है.. वो लपक कर उठ बैठा.. यह क्या.. सब तरफ अफरा तफरी मची हुई थी.. सब कुछ जैसे पानी के जहाज़ सा महसूस हो रहा था... धरती ज़ोर ज़ोर से हिलोरे खा रही थी.. सब सामान बिखर गया था... चारों तरफ चीख पुकार मची हुई थी...

वो झटके से उठा और भागने लगा... क्या करे क्या नहीं कुछ समझ नहीं आ रहा था.. सामने से एक बच्चा रोते हुए उसी की ओर भागते आ रहा था.. उसने उसका हाथ थाम गोद में उठा लिया।

फिर जैसे सब शांत हो गया हो। तूफान थम गया था.. भूकंप जो आया था वो अब शांत हो गया था.. धरती फिर ऐसे देख रही थी उसे, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो.. लेकिन जब उसने अपनी नज़र, चारों ओर  घुमाई तब पाता चला कितना विनाश हुआ था.. चंद सेकेंड का भूकंप और इतना विनाश। उफ्फ.. उसका दिल कांप गया। उसने हौले से बच्चे को गोद से उतारना चाहा, लेकिन उसने उसकी शर्ट कस कर पकड़ ली थी.. वो बहुत डर गया था.. 

एक पल के लिए उसका ध्यान ' उस लड़की ' पर गया, फिर, अगले ही पल वो अपने कर्तव्य को निभाने लगा।

एक इन्सान का कर्तव्य... एक सैनिक का कर्तव्य.. वो रक्षक है... और उसे अपना काम करना बखूबी आता था......

गावं में, मुनिया, किन्हीं विचारों मे खोई हुई थी। हंसमुख उसे पहली नजर में बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था.. लेकिन फिर, ना जाने क्या हुआ... उसका हर अंदाज़ पसंद आने लगा। उसकी कोई बात चीत तो नहीं हुई थी .... होती भी कैसे?? 

बचपन के एक हादसे ने उसके दिलो दिमाग को इतना ज़ोर के धक्का दिया था..... की उसकी बोली 'उसी ' पल में कैद हो गई थी। वो उस दिन कें बाद फिर कभी नहीं बोली... उसकी मामी ने उसे पाल पोस कर बड़ा करा था.. उसके माता पिता तो उस बस दुर्घटना में, खाई में समा गए थे.. वो, उन्हें ' बस ' के साथ नीचे, धरती मे समाती देखती रह गई थी... वो बच गई क्यूंकि, जब बस खाई के किनारे लटकी थी, तब मददगारों ने तब तक कुछ एक लोगो को खिड़की से बाहर निकाल लिया था... मुनिया तब ८ वर्ष की थी।

पिछले दो साल से, मामी, मामा और मुनिया इसी गांव में खेत खरीद कर रहने लगे थे। हंसमुख दो साल बाद अपने घर छुट्टी पर पहुंचा था.. जहां उसकी मुलाक़ात मुनिया से हुई थी।

मुनिया को हंसमुख का गठीला बदन व चुस्त चाल बड़ी मोहक लगी थी.. उसने कई बार हंसमुख को उसकी ओर बोलती निगाहों से देखते हुए महसूस करा था.. 

जब से वो गया है वापिस.. मुनिया को कुछ अच्छा नहीं लग रहा... बेचैनी में इधर उधर घूम रही थी कि अचानक.... धरती डोलने लगी... 

दूर से शोर सुनाई दिया.. भूकंप... घरों से बाहर निकलो..... और देखते ही देखते कई घर ताश के पत्तों से ढह गए। चारों तरफ से पशु पक्षी भागने लगे और विध्वंस होता दिखाई दिया...

मुनिया की आवाज़ आज भी नहीं निकल पाई... हलक में ही अटकी रही... उसने देखा उसकी मामी एक दीवार के नीचे ओंधी पड़ी है... बेसुध.. या शायद... सांसों ने साथ छोड़ दिया था...

मुनिया शून्य में ताकती ... बुझे कदमों से गांव वालों की मदद करने लगी......

**********

उस दिन भूकंप ने चारों ओर अफरा तफरी मच दी थी। हंसमुख अन्य जवानों के साथ पूरी तत्परता से सहायता कर रहा था। 

रह रह कर उसका मन, अपने गांव की तरफ खींचा जा रहा था। सुना था भूकंप गांव से कुछ ५० किलोमीटर की दूरी पर ही उत्पन हुए था। ना जाने गांव का क्या हाल होगा?? ना जाने पिताजी कैसे होंगे?? ना जाने ' वो लड़की ' कैसी होगी?? 

वो लड़की का खयाल आते ही उसका मन परेशान हो गया । पहली बार उसे मोहब्बत हुई थी.. अभी अपने मन की बात उसे बता भी नहीं पाया था कि यह सब हो गया। क्या उसके जीवन में कभी बहार आएगी??

मन के जज्बातों को दिल के तहखाने में बंद कर वो आगे बढ़ा... उफ्फ ..! कितनी जाने बेवजह चली गई .. वैसे, देखा जाए तो बेवजह कुछ नहीं होता... इंसान ने प्रकर्ती के साथ कितना खिलवाड़ करा है.. कभी ना कभी उसको गुस्सा आना ही था।
*
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मुनिया पूरा ज़ोर लगा कर उस दीवार को हटाने को कोशिश कर रही थी जो उसकी मामी पर यूं पड़ी थी मानो ओढ़ना ले रखा हो। तमाम कोशिशों के बाद भी वो उस दीवार को टस से मस नहीं कर पा रही थी।

सामने ही गईया अपने बछड़े को उठाने की कोशिश कर रही थी। बछड़े की सांसे चलं रही थी .. लेकिन उसकी टांग पर बिजली का खंबा गिरा हुआ था। वो भी खड़ा नहीं हो पा रहा था।

पीछे से रोने की आवाजे आ रही थी। बड़ी बेसहाय महसूस कर रही थी.. इस सब में भी रह रह कर उसे हंसमुख का गठीला बदन और चुस्त शरीर याद आ रहा था। वो होता तो मामी और बछड़े को झट से खींच लेता। लेकिन, वो नहीं है .. 

मामी ने दम तोड़ दिया था... मुनिया पथरा गई थी.. पहले के हादसे ने उसकी ज़बान रोक ली थी.. अब जैसे जीने की तमन्ना जी खो दी उसने.. 

क्या कभी उसका जीवन भी सुधरेगा.. वो जिससे मन लगाती है, अपना बनती है, वो उसका साथ छोड़ देता है.. नहीं नहीं ... अच्छा ही हुआ जो उसने हंसमुख से अपने दिल की बात नहीं कही.. वैसे भी वो जा चुका था...।

         ********
२ साल बाद

हंसमुख आज फिर बस से उतरा था .. आज दिल में उम्मीद की एक किरण जागी फिर अगले ही पल बुझ भी गई। आज किसी खिलखिलाहट ने उसका स्वागत नहीं करा था। इतना वक्त गुजर चुका है.. ना जाने क्या हाल है सबका.. ??

जवान की पहली डयूटी देश के लिए होती है इसलिए भूकंप के बाद भी वो घर नहीं आ पाया था। वैसे घर के नाम पर बचा ही क्या है। बाबूजी तो चले गए .. सुना है घर की दीवार डह गई थी। उसी मलबे में कई दिनों तक धसे रहे .. जब गांव वालों को होश आया तब तक देर हो चुकी थी। 

वो भी कहां आ पाया था.. क्या करता आ कर। हां ' वो लड़की ' का खयाल आता था मन में, बार बार लेकिन उसका भी क्या।  ना जाने उसका क्या हुआ होगा..??

अपने विचारों में खोया हुआ वो घर की तरफ जा रहा था। वो पहली सी बात कही नहीं थी। सब उजड़ा उजड़ा सा था .. खेतों में भी वो रौनक नहीं थी जैसी पहले हुआ करती थी। काफी खेत सूखे वीरान पड़े थे .. कुछ एक में भुट्टे लगे थे। बच्चों का एक झुंड पास के मैदान में गिल्ली डंडा खेल रहा था। 

कुछ सोच वह अपने खेत की ओर मुड़ गया। पूरा खेत बंजर पड़ा था। देख यह हाल, उसकी आंखों से, झर झर आंसू निकल पड़े। वो वही बैठ गया और शून्य में ताकता रहा। वक्त का कोई अंदाज़ा ही नहीं था। काफी शाम घिर आया थी, वो खड़ा हुआ और कपड़े झाड़ते हुए, दूर कुएं की तरफ ध्यान गया।

वहां कुछ हलचल सी महसूस हुई। वो उसी तरफ बढ़ गया। वहां पहुंच देखा की कुछ बच्चे किसी को तंग कर रहे थे। शायद कोई पागल थी। वो बिना कुछ बोले , बिना झड़पें बच्चों के सितम सहन कर रही थी। हंसमुख ने बच्चों को डांट कर भगाया और उस महिला को ज़मीन से उठाया।

यह क्या.... यह तो वही लड़की थी.... !! सुनो" सुनो उठो .. क्या हाल बना रखा है.. " उसने पुकारा। लेकिन वह लड़की कुछ नहीं बोली। बस उसे ताकती रही.. मौन आंखों से..

"उफ़" हंसमुख के मुंह से आह निकली। वह तो इसका नाम भी नहीं जानता। 

उसने अपने हाथों का सहारा देते हुए उसको खड़ा कर अपने कंधे पर टिकाया.. और गांव की तरफ चल दिया.. 

वह जिसकी तलाश में आया था.. जिससे मिलने की चाह थी.. वह मिल गई थी। उसके साथ चल रही थी। लेकिन यह सिर्फ उसका शरीर था. वो ना जाने कहां खो गई थी...।

****


अंधेरा घना होता जा रहा था, चिरैयां अपने अपने घर लौट चुकीं थी। एक कंधे पर अपना बैग लटका कर दूसरे पर उस लड़की को टिकाए वो चौपाल तक पहुंचा। 
" उफ्फ .. यह क्या हो गया है मेरे गांव को..? पहचान ही नहीं पा रहा हूं.. आधे से ज्यादा मकान तो सिर्फ मलबे में तब्दील हो चुके है। इस लड़की का घर कहां है में तो यह भी नहीं जानता.. सुनो..! तुम्हारा घर कहां है.."

पूरे रास्ते, जो बेसुध सी लाश बनी उसके कंधे पर टिकी थी उसकी आंखों में अचानक कुछ रोशनी उभर आईं थीं। 

"घर.. घर कहां है तुम्हारा..?" उसने फिर पूछा।
वो फिर मौन हो गई.. आकाश को ताकने लगी। इतने में सामने से मनोहर काका आते दिखाई दिए।

"मनोहर काका, प्रणाम .. पहचाना नहीं क्या..? में हंसमुख। हरचरण जी का बेटा" हंसमुख बोला

" हां हां.. कैसे हो बेटा? काफी वक्त बात दिखे? और ये मुनिया कहां मिल गई तुम्हें। अच्छा करा जो इसे ले आए। बड़ी अभागी है बेचारी। चलो इसे मंदिर में छोड़ आते है।

"मंदिर में क्यूं?? मंदिर के पास ही रहती है क्या?"

"अरे नहीं.. नहीं.. अब और कहां रहेगी। घर तो बचा नहीं । पगला और गई है। वहीं पुजारी इसका खाना पीना देख लेता है। "

" क्या हुआ इसको?? पिछली बार आया था तब तो बड़ी स्वस्थ थी। हंसी ठिठोली करती थी?"

"अरे कहां.. कहां हंसी ठिठोली करती बेचारी... गूंगी हो गई है। ना जाने कब फिर बोलेगी.. इसका भी तो कसूर नहीं.. बचपन में मां बाप को अपनी आंखो से खाई में गिरते देखा... फिर भूकंप में अपने मामा मामी को दीवार के नीचे दम तोड़ते। पहले हादसे में आवाज़ चली गई दूसरे में सुध बुध।" सर हिलाते दुखी हो मनोहर काका बोले।

हंसमुख को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो समझ नहीं पा रहा था कि कैसे वो अब तक यह जान ही नहीं पाया की यह लड़की, मुनिया हां यही नाम तो कहा काका ने अभी इसका। मुनिया बोल नहीं सकती .. बचपन में ही आवाज़ चली गई थी.. उसको कुछ समझ नहीं आया। उसने तो इससे कितनी बातें करी थी.... या शायद नहीं करी थीं..??

हां अब याद आया... जब भी कुछ पूछा तो वह बस खिलखिलाती और इशारे से उत्तर दे भाग जाती थी। और वह यही समझता रहा की वह शर्मा कर भागती थी।

उफ्फ कितना कुछ सहा है इसने। में कुछ नहीं कर पाया । कितना कठिन रहा होगा सब सहना। 

काका ने बताया इसका कोई नहीं है। यूं ही दिन भर इधर से उधर घूमती रहती है। बच्चे तंग करते रहते हैं और यह बेसुध पड़ी रहती है।
मुनिया को मंदिर में छोड़ आने के बाद वह काका के घर ही रुक गया था। उसका खुद अपना घर भी तो कुछ खास नहीं बचा था। वह यहां से सारे नाते खत्म करने आया था। घर और खेत बेच कर हमेशा के लिए शहर जाने के इरादे से आया था।

किसी तरह हंसमुख ने रात गुजारी। रात भर ज्वारभाटे से खयाल उथल पुथल मचाते रहे। सुबह पहले मंदिर गया और मुनिया को आवाज़ लागाई। उसकी आवाज़ पर पहली बार मुनिया ने कोई प्रतिक्रिया जताई। 

" अरे बिटवा, तुमने तो जादू कर दवा। ई तो कछु ताकती नाही। तुम्हार आवाज़ पे पलट कर देखे रही। तुमको पहचान गई दिखे। " पुजारी खुश होते हुए बोला।

हंसमुख को बड़ी खुशी हुई। मुनिया के चेहरे के हाव भाव बदलने लगे और वह भागती हुई उसके पास आई, और उसके सीने से लग फूट फूट कर रोने लगी। हंसमुख उसका सिर सहलाता रहा और उसको जी भर कर रोने दिया।

पुजारी यह देख अवाक रह गया.. फिर उसकी आंखों में खुशी के आंसू भर गए।

"आज पहली बार ई रोई रही.. रो लेने दे। कित्तौ दर्द भर रहा है जायके सीने में। सारे दर्द को बह जान दे। बेटा मेरी मान तो इसको अपने साथाई रख ले। कोई तो है नहीं इसका, में कित्ते दिन इसकी सेवा कर पाऊंगा। मेरी भी उम्र बह गई है.. का भरोसा मेरा बुलावा कब आ जाय। जाई की फिक्र में जी रहा हता में। " पुजारी बोला।

मुनिया ने उसे कस कर जकड़ रखा था .. मानो इस बार कहीं नहीं जाने देगी। 

हंसमुख ने बहुत सोच विचार के बाद बहुत ही कठिन फैसला लिया। मकान और खेत को मनोहर काका के सुपुर्द कर दिया। 

" काका जब पैसे हो तब दे देना। नहीं हो तो भी कोई बात नहीं। यह सब मेरे किसी काम का नहीं है। मैने मुनिया से ब्याह करने का फैसला करा है। ऐसे लेकर जाऊंगा तो भगवान को क्या मुंह दिखाऊंगा। ब्याह कर ले जाऊंगा तो इसकी सेवा बिना ग्लानि कर पाऊंगा।" 

" जुग जुग जियो लल्ला.. इतने नेक विचार और इतना बड़ा त्याग .. फिलहाल मेरे पास थोड़े पैसे हैं वह ले जाना। ना.. लल्ला मना नहीं करना। मुनिया मेरी भी बिटिया समान है। लेकिन आज मुझे अपने पर शर्म आ रही है कि मेने अपनी बिटिया के लिए कुछ नहीं करा। मुझे विश्वास है और मेरा आशिर्वाद है कि यह जल्दी ठीक हो जाएगी । " काका ने ढेरों आशिर्वाद देते हुए एक लिफाफा थमा दिया। 

हंसमुख ने मुनिया से वही मंदिर में ब्याह कर लिया। मुनिया के चेहरे पर कई वक्त बाद सबने सुकून देखा.. और शायद मुस्कराहट भी... 

शायद उसका प्रेम उसकी मुनिया को वापस ला दे.. इसी उम्मीद के साथ अपने मकान को घर में बदलने की कामना करता चल दिया......!

******* समाप्त******
🙏



Tuesday, May 25, 2021

खत


मीना अहाते में बैठी इंतजार कर रही थी। इंतजार के अलावा कर भी क्या सकती थी।
*
*
*
भाग्य ने उसकी किस्मत में यही लिखा था..  दूर आम के पेड़ पर पड़े झूले को देख रही थी। कैसे वो निश्चल दिन थे जब बिना किसी की परवाह करे वो दिन भर झूला झूलती थी। पेड़ पर चढ उसके पके आम खाती थी। मंजू, उसकी प्यारी सहेली उसका खूब साथ देती थी।

दो साल पहले मंजू का ब्याह हो गया था। बारह साल की ही तो थी मंजू.. कितनी सुंदर लग रही थी उस लाल जोड़े में। हाथो में महंदी बहुत गहरी रंग लाई थी। खन खन करती उसकी लाल हरी चूड़ियां, माथे पे चमकती बड़ी सी गोल बिंदी, पैरों में घुंगरू वाली पायल .. यह सब देख उसका मन भी ब्याह करने को चाहने लगा था।

और फिर उसकी बिदाई हो गई । वो चली गई अपने ससुराल। मीना अकेली रह गई थी। बड़ी याद आती थी मंजू की उसे।

एक दिन डाकिया बाबू आए ..  ट्रिन ट्रिन साइकिल की घंटी बजाते। और उसके हाथ में थमा दिया एक पोस्टकार्ड। जिसपर मीना का नाम लिखा था। पाठशाला में छठी कक्षा में पढ़ती थी सो खत से अपने नाम को पहचान गई।

" मां, देखो मीना का खत आया है मेरे लिए.." वो चहकती हुई अंदर भागी।

" मां , मीना ने लिखा है , इस महीने वो घर आएगी। पूरे पंद्रह दिन के लिए आ रही है। जिज्जाजी उसको लीवाने बाद में आएंगे" हर्षित हो उसने पल में घर भर को नाप लिया था।

कागज का नन्हा सा टुकड़ा उसको इतनी खुशियां दे सकता है उसने जाना ही नहीं था।

कैसे कटेंगे इतने दिन उसके इंतजार में , यही सोच सोच उसका दिल विचलित हो रहा था।

"******
जैसे तैसे वो दिन भी आ ही गया.. सुबह से ही मीना एक टांग पर सारा काम कर रही थी। उसकी प्यारी सहेली जो आने वाली थी। 

"मीना ओ री मीना.. कहां छुप गई रे.. में मिलने को बैचैन हूं। " मंजू ने घर में घुसते हुए कहा।

दोनों सहेलियां जी भर के गले मिली और खूब रोई। मीना की मां की आंखें भर आईं थीं दोनों का स्नेह देख कर। वो दोनो के लिए लस्सी और कचोरियां ले आई.. थोड़ी देर बात कर रसोई बनाने चली गई।

मंजू ने मीना को अपने बड़े घर के बारे में ढेरो बातें बताई। उसकी बातें जैसे ख़तम ही नहीं हो रही थीं। उसने जिज्जाजि की बहुत बातें बताई। मीना उसकी बातें आंखे फाड़ कर सुनती रही। 

"ऐ मीना, कितना अच्छा हो कि तेरा ब्याह इनके जुड़वा भाई से हो जाए। हम दोनों सहेलियां हमेशा साथ में रहेंगी। कितना मज़ा आएगा है ना..?" 

मीना की आंखों ने भी सतरंगी सपने देखने शुरू कर दिए थे।

उसकी बातें मीना की मां के कानो मे पड़ी.. वो सोच में पड़ गई। 

" बात तो सौ पते की कर रही है मंजू.. घर तो मंजू का ही है.. कुछ पता करने भी ज़रूरत नहीं .. खानदान भी अच्छा है, खूब पैसा भी है। और सबसे बड़ी बात दोनों सहेलियां एक साथ रह पाएंगी हमेशा। में आज ही मीना के पिताजी से बात करती हूं। जितनी जल्दी यह रिश्ता हो जाय उतना अच्छा। देर करी तो कहीं रिश्ता हाथ से ना निकल जाय।" मीना की मां ने पक्की तौर पर मन बना लिया।

शाम को जब पति घर आए तब बिना वक्त गंवाए उसने अपने मन की बात उनके सामने रख दी। 

" देखो मीना की अम्मा, घर खानदान अच्छा है इस बात से मुझे इनकार नहीं। लेकिन देखो तो ज़रा, अभी नन्ही सी बच्ची है.. क्या जल्दी है ब्याह की..? तनिक थोड़ा हमार साथ रह लेन दो। कौन जाने सासरे में क्या आराम मिलेगा"

"हद करते हो जी। मंजू भी तो वहीं ब्याही है। खुस भी लाग रही है। अपनी मीना के भी नसीब खुल जाएं जो बा घर में ब्याह गई। मंजू मीना से बस चार महीना ही तो बड़ी है। बाकी सादी है गई तो अपनी मीना की काहे ना हो सके??" 

"देखो, आज में बहुताय थक गया हूं। सोच विचार कर ही में अपनों जवाब दूंगा। चल अब पेले रोटी खिला, बड़ी जोर की भूख लाग रही है।" 

मीना के पिता ने इस विषय मै कोई बात नहीं करी। कई दिन बीत गए। मंजू का दूल्हा आज उस लिवाने आने वाला था। सब दामाद जी का स्वागत करने की तैयारी रहीं थीं। मीना की मां भी ताज़ा खीर बना कर मंजू के घर को चली। 

वहां दमादंजी का उजाला रग रूप और मीठी वाणी सुन कर , मीना की मां को इसी घर में मीना को भेजने का विचार अच्छे से घर कर गया।

शाम को घर पहुंच उसने फिर बात छेड़ी.. " देखो जी आज अपनी आंख से दामाद जी को देख के आईं हूं। मंजू के रही थी कि दोनों जुड़वा है । तो समझो मेने उनके भाई को भी देख लिया। कहीं से भी कोई कमी ना है। उमर में भी ज्यादा बड़े ना है। उनीस साल के बड़े सलोने से हैं। 

आपके सोच विचार में कहीं इतना अच्छा लड़का हाथ से ना निकल जाए। आप कल ही उनसे रिश्ते की बात करने जाओ। बस मेने अपना फैसला सुना दो। " अपनी बात कह वह गुस्से में मुंह फेर कर बैठ गई।

" ठीक है जैसा तुमको सही लगे। मेरा तो अब भी यही मानना है दो एक साल रुक जाए। पर तुम्हारी जिद के आगे मेरे सब तर्क बेकार। कल ही जाता हूं .. बस अब तो खुश..?"
............

सब कुछ जल्दी जलदी हो गया। वो लोग भी ब्याह को राज़ी हो गए। उनको दहेज में भी कुछ नहीं चाहिए था। घर बार तो अच्छा था ही। मीना के पिताजी भी अब खुश थे। 

दो महीने बाद का महुरत निकला था ब्याह का। 
मीना और मंजू की खुशियों का ठिकाना ना था। दोनों सहेलियां अब जीवन भर साथ रहने जो वाली थी..।

........

मीना अपने मन में नई उमंग और खुशियां लिए ससुराल में दाखिल हुई। छुई मुई सी कोमल मन और सुंदर नैन नक्ष की थी मीना। उसकी कोयल सी चहकती बोली थी। मंजू के साथ जीवन भर रहना भी तो था। अब तो यह हवेली दोनों सहेलियों की थी। अब आखिर दोनों बहने जो बन गई थीं।

सकुचाई सी मीना, सास के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेने गई। सास ने बड़े स्नेह से पास बिठाया और उसका घूंघट उठाया। 

"हाय में मर जाऊं, कित्ती सुंदर दुल्हन है, महारे लखन के तो भाग खुल गए।" बलैयां लेते हुए सास बोली।

सभी बड़ी बुडियों में फिर कुछ खुसर पुसर होने लगी। इतने में लखन, यानी मीना का दूल्हा, कमरे में प्रवेश करता है। चारों ओर चुप्पी छा जाती है.. मानो सबको सांप सूंघ गया हो। 

मीना को अजीब लगता है , फिर विचार आता है "लगता है लखन के खूब ठाट है। सब उससे डरते हैं और सम्मान करते है.. तभी तो इसके घुसते ही चुप्पी छा गई।" उसका मन मयूर खुशी से फूले नहीं समाता है... "मां बता रहीं थीं कि यदि पति की इज्जत हो तो उसकी पत्नी की और भी ज्यादा इज्जत होती है।"

"ये मंजू भी ना जाने कहां मर गई। मुझे यहां किनके बीच अकेला छोड़ गई है। मिलने दो .. ऐसी खरी खोटी सुनाऊंगी की बस" मन ही मन मंजू पर गुस्सा दिखाती मीना बुदबुदाई।

' आंखो में नींद भरी हुई है। शादी में मज़ा तो आया लेकिन बहुत थका भी दिया मुझे। मंजू ने मुझे पहले क्यूं नहीं बताया था। कहां सो जाऊं यह भी नहीं समझ आ रहा ' यही सोचते विचारते वह उनींदी सी होने लगी।

"अरी, बहन देख तो ज़रा। बहुरिया ठीक नहीं लग रही। दौरे वोरे पड़ते हैं का। देख तो कैसे आंखें ऊपर चढ गई हतें" पड़ोस की सुनीता बोली।

"मोय लगे बहुरानी थक गई है। चलो चलो री सब उसे आराम करन दो।" यह कह कर उसकी सास ने सभी औरतों को वहां से विदा करा।

मीना को उसका कमरा दिखाया और आराम करने को कहा। मीना बिस्तर देखते ही होश खी बैठी। पल भर में ही गहरी नींद में खो गई। 

उसकी जब आंख खुली तब दीपक जल रहा था कमरे में, और खिड़की के बाहर अंधेरा दिख रहा था। "हाय राम .. कितनी देर सोती रही। किसी ने मुझे जगाया भी नहीं। मां तो मुझे कभी इतनी देर सोने नहीं देती।" 

इतने में मंजू उसके कमरे में चाय का लोटा और ग्लास ले कर आई। आते ही मीना के गले लगी "मीना बहन .. देख कहा था ना अपने घर ले आऊंगी"

"हां.. और हवेली कित्ती बड़ी है। ऐसा तो मेने सपने में भी नहीं सोचा था। बाहर से अंदर कमरे तक आते आते ही में तो थक गई।"

और दोनों सहेलियां.. ना ना.. बहनें हंसने लगीं। मंजू इशारा कर मीना को चुप होने को कहती है। 

"मीना इत्ता ज़ोर से ना हंस। सासूमां को पसंद नहीं है"
"में आ गई हूं ना। में सबको हसना सीखा दूंगी, तू चिंता मत कर" यह कह मीना ज़ोर ज़ोर से हसने लगी।

"दोनों यहां बैठ ठिठोली कर रही हो.. चलो समाज के लोग आते होंगे । यहां के भी तो रस्मे निभानी है" प्यार से झिड़कती मुनिया महरी बोली।

और रस्मों का कार्यक्रम शुरू हुआ। मीना को ना जाने क्यूं अब मां की याद सताने लगी थी।

मीना सब रस्मे निभा तो रही थी.. रह रह कर मां को याद कर रही थी। 
' कितनी रस्मे करनी हैं.. सब मुझे ही क्यूं करना है.. लखन का भी तो ब्याह हुआ है। उसको भी तो रस्मे करनी चाहिए.. सब मुझे ही करना पड़ रहा है।' मन ही मन लखन को कोसती मीना बड़बड़ाई।

"ब्याह से लेकर अब तक लखन ने एक शब्द नहीं बोला था। रास्ते में जब बैलगाड़ी में चोटी फंस गई थी तब भी निर्मोही लखन ने मदद नहीं करी। कैसे मीठे बेर की झाड़ी थी.. वो भी नहीं दिए तोड़ कर। पीछे की गाड़ियों में तो सब बेर तोड़ रहे थे और खा भी रहे थे। मंजू ने मुझे एक भी बेर नहीं खिलाया।" बेचैन हो मीना अपने आप से ही बतिया रही थी।
*
*
हफ्ता बीत चुका था ब्याह का। सब अपने काम में मशगूल थे। मीना ने भी हवेली के काफी कोनो को देख लिया था, नहीं देखा था तो.. लखन को।

" ना जाने कहां रहता है लखन.. कभी दिखता ही नहीं। एक दिन मेरे साथ खेलने भी नहीं आया। मंजू भी ज्यादा नहीं खेलती। गांव में ही अच्छी थीं.. वहां जी भर कर झूला झूलती थी। यहां झूला तो है लेकिन झूलने की इजाजत नहीं है। अजीब घर है.. "
.................

"सुना है लखन ने बहुरिया का मुखड़ा तक नहीं देखा? एक बार देख लेता तो दीन दुनिया भूल जाता। इत्ती सुंदर बहुरिया है। में कहूं किसी भी तरह उसकी एक नजर पड़वा दो.. देखना सब ठीक हो जाएगा।" महरी अम्मा बोली

"अरि.. चुप कर मरी। अभी थोड़ा वकत तो बीतने दे.. बकत सब ठीक कर दय है। लखन भी गृहस्थी में पड़ जाएगा.. जैसा राम पड़ा है। मंजू को देखते ही बावला जो गया था।" सास बोली

"जे तो सही कह रही हो.. अच्छा बहू घर कब जा रही है.. मुझे उसके साथ जाना पड़ेगा ना। जाई से पूछ रही हूं। .... बैसे एक बात तो बताओ.. लखन बहुरिया को लीवाने तो आ जाओगा ना..?" प्रश्न वाचक मुद्रा में महरी ने पूछा।

कुछ ठिठकते हुए सास बोली.." घर तो भेजना है.. बस उससे पेले एक बार लखन इसका मुखड़ा देख लेता तो सब ठीक हो जाय। अब लिवा तो लाएगा ही.. इत्ता तो हमारा मान रखेगा"

............
शाम को मीना, मंजू के साथ गट्टे खेल रही थी। तभी लखन वहां से गुजरा। मंजू ने कोहनी मारी और मीना से कहा.." जा री मौका अच्चो है। कर ले सब शिकायत अपने पति से।" और हंसते हुए वह वहां से भाग गई।

"लखन सुनो...? " मीना ने पुकारा
लखन ठिठक कर रुक गया लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोला।
"तुम मुझसे बात क्यूं नहीं करते..?"
"क्या रखा है बातों में.. जीवन पथिक हैं हम .. मंज़िल को पाना है .. लक्ष्य यहीं साध लो... तब पार होगा यह भवसागर।" लखन शांत स्वर में बोला

"क्या बोल रहे हो लखन.. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा" परेशान हो मीना बोली

" प्रभु प्रेम ही सब कुछ है.. जीवन धारा को वही मोड़ो .. जैसे मेने मोड़ा है। उसकी भक्ति ही सबसे बड़ी तपस्या है। हरी बोल.." और हाथ माला को घुमाता लखन वहां से चला गया।

मीना को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि लखन क्या कहना चाहता है.. 

हफ्ते भर बाद मीना को महरी के साथ उसके घर भेज दिया गया। वो सूनी आंखो से, मौन हो अपने घर को चली।

........

मीना को ससुराल से घर आए हुए पंद्रह दिन बीत चुके थे। 

"क्या हो गया है हमारी मीना को.. पूरे बकथ जो हंसती मुस्कुराती थी वो इतनी सांत कैसे हो गई। मंजू जब पहली बार घर आई थी तब कितनी चहक रही थी.. हमार मीना कों क्या हो गया।" परेशान पिता ने मीना की मां से पूछा।

"अरे छोरियां अब बहू बन गई है। हुमार मीना का दिल साफ है , जल्दी ही हर बात घर कर जावे। बिटिया से बहू का सफर तय कर लो दिखे" मां ने उत्तर दिया।

" बो सब तो ठीक है.. पर फिर भी.. उसका दिल टटोला एक बार भी तुमने?? बो खुस तो है ना। लड़ कर तो ना आ गई ??।" 
" तुम बस गलत ही सोचो। लड़े हूमार दुस्मन। याद करती होगी दामाद जी को । जाई से इत्ती चुप है"

" काश तुम जो कह रही हो वही सही हो। महरी भी इसे यहां छोड़ उसी दिन बापिस चली गई थी। कछु बताया भी ना। कब तक आएंगे दामाद बाबू इसको लीवानें"

" अब छोरी तो उन्ही की हो गई है .. आईं है तो तनिक रह लेन दो ना.. । आप भी बस समझ ना आओ मोए। जब ब्याह का बोला तो मना करते रहे अब छोरी घर आई तो भेजने में लगे हैं।" नाराजगी दिखाते मीना की मां बोली।
*****
****
मीना सब सुन रही थी। वो उन्हें कैसे बताए कि लखन तो किसी ओर का हो चुका है। उसने तो भक्ति का रास्ता अपना लिया है। प्रभु के अलावा उसे कुछ दिखता ही नहीं। उसने तो ढंग से बात तक ना करी और जो करी वो कुछ समझ ना आईं।

दिन महीने में बदल गया.. महीना दूसरे महीने में.. सावन भी आ गया .. ससुराल वालों ने कोई खबर नहीं ली।

मीना का पिता चिंतित हो गया था सो मन में ठान ली की कल उसके सासरै जा कर पता करेगा।

दूसरे दिन तड़के ही वो मिठाई और फल का टोकरा लिए बैलगाड़ी पर निकाल गया। 
वहां उसके ससुराल में खूब स्वागत हुआ। अच्छे से उसका सत्कार करा। भोजन का भी आमंत्रण दिया।

" माफी चाहूं में.. बिटिया के घर का पानी भी पाप है। चिंता न करो में अपनी रोटी और छाच साथ लाया हूं। बस इत्ता बता दो बिटिया को लीवाने दामाद जी कब आवेंगे..? " हाथ जोड़ विनम्रता से उसने पूछा।

इतना सुनते ही सबके सर झुक गए।
" का बताएं .. हमसे बड़ी गलती है गई। मीना का जीवन हमने बर्बाद कर दयो। लखन सन्यासी हो गया था। हमने सोची मीना की खब्सूर्ती देख गृहस्थ हो जाएगा .. बल्कि उल्टा हो गया। बो तो यहां से चला गया.. कह कर गया है मीना को वही जवाब देगा। आप कभी भी उसे यहां छोड़ जाएं .. अब वो हमारी बिटिया है।"

मीना के पिता निरुत्तर हो गए थे। उनसे समय और मीना की इच्छा पूछकर बताएंगे कह कर वापिस घर को चल दिए।
***********

"हाय जे का हो गया हमार लल्ली के साथ। इतना बढ़िया घर मिला.. लेकिन दामाद जी ऐसे निकलेंगे का पतो था" सर थाम कर मीना कि मां बैठी थी।

" में वहां नहीं जाऊंगी मां .. जब तक लखन लेने नहीं आएगा..  यही मेरा फैसला है.." अपनी बात रखते हुए मीना बोली।

अब वो बच्ची नहीं थी.. सच मे बड़ी हो गई थी.. किसी की पत्नी थी.. और अपने आत्मसम्मान के लिए अपने फैसला लिया था...

अब उसके जीवन का एक ही उद्देश्य था ... लखन के खत या खुद उसका... इंतजार.....

सिर्फ इंतजार.........।

                      ..... समाप्त.....

Thursday, May 20, 2021

उसका खत


दरवाज़े की झिर्री से सरक आया
एक कागज का टुकड़ा
खोल उसे मैने पाया
था पैगाम उसके आने का

मुस्कान मेरी झलक उठी
अंखियां मेरी चमक उठी
मन की फुलवारी में
तितली अनेक मचलने लगीं

अरसा हुआ देखे हुए
कैसा दिखता होगा वो
चार साल होते नहीं कम
किसी को बदलते हुए

सब भूल सकता है वो
नहीं मुझे भूल पाया है
खत में ऐसा उसने लिखा था
मां का कर्ज उतारने आ रहा है

क्या कभी कोई उतार पाया
ममता का मोल चुका पाया
पगला है, ना जान पाया
मुझसे मिलना कहां भूल पाया है

उम्मीद की किरण चमकी
हलवा पूरी आज बनेगी
उसके स्वागत के बहाने
घर में दीवाली आज मनेगी

अंखियां मूंदने से पहले
हो गई हर मुराद पूरी
सीने से उसे लगा
भर लूंगी अपनी झोली

छोटा सा है खत उसका
उम्मीदों की स्याही सा
हज़ार बार हर शब्द पढ़
करूं इंतजार उसका अब
∆ १९/०५/२०२१∆
© Deeप्ती

Friday, May 7, 2021

वो गलियां



जहां कभी बस्ता था बचपन
जहां खेलता था लड़कपन
छोड़ आए हम वो गलियां

जहां कभी गुजरती थी शाम सुहानी
जहां खेत खलियानों में पड़ता था पानी
छोड़ आए हम वो गलियां

जहां मासूमियत भरी शरारत थी
जहां स्वच्छंद खिलखिलाहट थी
छोड़ आए हम वो गलियां।

©Deeप्ती




शाप




धरती इत्रा रही अपनी हरियाली पर
पेड़ों पर, फूलों पर, सतरंगी रंगों पर
घमंड मे भर, चिडा रही सूरज को, चंदा को
शांत था सूरज, उसके भोलेपन पर 
चंदा भी चुप था देखता रहा छुप- छुप कर

मनुष्य ने तब, रौंदा धरती को
करा अपमानित उसके गर्व को
तार तार कर, हर पल, उसका मान
भेद कर उसको, बन रहा अनजान
धरती का भक्षक बन हुआ अब बलवान

अभिमान बन जाता है शाप
मत कर, मत कर, इतना पाप
सूरज और चंदा करते रहे अपना काम
घमंड का तब हुआ काम तमाम
रह जाएगा सब यहीं, शांति का करो जाप।

#05/05/2021#
©deeप्ती

Monday, May 3, 2021

मां और मनोज



" मां... मां.. मैं आ गया.. देखो क्या ले कर आया हूं... यह क्या मां घर में अंधेरा क्यूं है?? कितनी बार कहा है की सांझ होने पर बत्ती जला लिया करो। चलो कोई बात नहीं " कहते हुए मनोज ने बत्ती जला दी और बोला ..
"पता है मां.. आज मैं बहुत खुश हूं.. आज मेरे बॉस ने मेरी बड़ी तारीफ करी और कहा कि अबकी बार मुझे प्रमोशन भी देंगे.."

आशीष से भरे मां के नयन बस एक टक देखते रहे अपने लाल लो। हल्की सी मुस्कराहट के साथ वो खामोश रहीं... बहुत कुछ कहना चाहती थी.. लेकिन जैसे शब्दों का कोई मोल नहीं था भावनाओं के आगे।

"मां आज में बढ़िया खाना लाया हूं.. मटर पनीर , दाल मखनी और रोटी.. और हां साथ में तुम्हारे मनपसंद गुलाब जामुन भी है। और पता है वो जग्गू चाचा हैं ना अंबिकापुर वाले... उनके बेटे की शादी पक्की हो गई है.. फोन आया था.. आप तो जा नहीं पाओगी .. मैं ही छुट्टी कि बात करता हूं। शादी अगले महीने १५ तारीख को है।

नाराज़ मत हो बाबा...हां... हां... दवाइयां ले आया हूं। आपका आदेश सिर आंखों पर। डाक्टर साहब को दिखा दिया था .. ज़रा सी ही तो चोट है .. दो एक दिन में ठीक हो जाएगी। साइलेंसर ही तो छू गया था। ज़्यादा परेशानी नहीं है.. खैर .. छोड़ो.. सब बातें बाद में...
मै मुंह हाथ धो कर आता हूं फिर खाएंगे.. ठीक है.." कहता हुआ मनोज कपड़े बदलने चला गया।
बाहर आ कर बोला..

"अरे मां, आज तो कपड़े भी तो धोने है... आप बताते जाओ में करता जाऊंगा.. आप बस अपने शुभ आशीष दो मुझे .. फिर देखो कैसे में सारे काम निपटा दूंगा पल भर में.." कपड़े मशीन में डाल कर मनोज खाना लगाने लगा।

एक कौर तोड़ कर मां की ओर बढ़ाया.. बोला " मां सारी ज़िन्दगी आपने अपने हाथ से खिलाया है.. आज वक्त बदल गया है.. अब मैं आपको खिला रहा हूं।

बहुत याद आती है मां .. आपकी.. लेकिन आप मेरी चिंता मत करना ... मैं ठीक हूं.. सब संभाल लूंगा.. " दीवार पर टंगे फोटो फ्रेम में मां की तस्वीर के आगे बैठा मनोज, चुप चाप भोजन करने लगा......।

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Saturday, May 1, 2021

प्रेम का संदेश

मई की धूप में गुम थी मधु.. किन्हीं खयालों में खोई थी.. पसीने की बूंदे माथे पे रह रह कर अपना घर बना रही थीं। 

धूप का वो टुकड़ा उसकी हथेली पर तीखी मिर्ची सा महसूस हो रहा था। फिर भी वो बस, जैसे, उसे एकटक ताक रही थी। वो धूप का टुकड़ा अब उसकी हथेली से सरक कर मेज पर आ गया था, बिल्कुल अबोध बालक की तरह वहां पड़ा हुआ था। बेसुध, बेखौफ, बेपरवाह शिशु की तरह। कहां मतलब था उसे, कि धरती पर क्या हो रहा है।

वो उसे ताकते हुए, प्रभु का शुक्रिया अदा कर रही थी, की वो आभारी है, जो आज की सुबह देख पा रही है। इस महामारी ने पूरी दुनिया को जकड़ रखा है। हर तरफ बेबसी है, लाचारी है।

ना जाने कितने को खोया है .. अब तो जैसे सब बेहिसाब हो गया है। हर रोज़ कितने ही अपनी जान के लिए लड़ रहे हैं, मौत से। कुछ जीत रहे हैं तो कई हार रहे हैं।

मधु भी इस दौड़ में, लड़ाई में, जीत गई थी। लेकिन किस कीमत पर? कहने को तो जीत गई लेकिन फिर भी हार गई। इस दौड़ में सिर्फ वो ही जीत की रेखा पार कर पाई बाकी उसके अपनो ने तो ज़िन्दगी की यह दौड़ पूरी ही नहीं करी।

सब पीछे छूट गए, काल के हाथों मजबूर हो गए। वो अब अकेली इस खिड़की पर बैठी नन्हे पौधों को निहार रही थी, की अचानक उसकी नजर पास रखी कटोरी पर गई जिसमें उसने खरबूजे के बीज धो कर रखे थे। सूखने के लिए छोडे थे, उन्हें छील कर रखेगी यह सोचा था।

उसने हाथ बढ़ा कर वह कटॉरी उठाई और ढक्कन खोला। वो अंदर का दृश्य देख चौंक गई। अंदर बीज अंकुरित हो गए थे । वो उसे देख मुस्करा रहे थे, मानो कह रहे हो, ज़िन्दगी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है, बस थोड़ी खुली हवा और धूप की ज़रूरत होती है।

अब मधु मुस्करा रही थी। ज़िन्दगी उसकी चौखट पर दस्तक जो दे रही थी। कहां सब ख़तम हुआ है। अभी तो बहुत लंबी डगर है। 

उसमे से कुछ पौधे हाथ में लिए, वो बाहर आई । मिट्टी में बो देने के लिए। शायद कुछ पौधे पनप ही जाएं, कौन जाने??........

@Deeप्ती
✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨

Friday, April 30, 2021

में रक्षक हूं



शत विशिप्त सा हुआ
लहू लुहान अंग अंग मेरा
मन में उमंग जीवित है
में देश का रक्षक हूं

घुसपैठिए को मार भगा दूं
आंख लहूलुहान कर दूं
मेरी मां पर नजर जो बुरी डाले
में रक्षक हूं आन का

सिर चाहे काट ही दो
शान से सिर उठा में जियुं
तमगो की ना चाह मुझे
में तो बस रक्षक हूं

लौट आऊंगा ज़रूर में
चाहे चल के पैरों पे
या ही आऊं बक्से में
में रक्षक ही रहूंगा

चाहे यादों में रहूं ना रहूं
खत्म कर दुश्मन को
में अपनी नजर में ज़िंदा हूं
हां हां में रक्षक हूं।

....30/04/2021...
©Deeप्ती


Thursday, April 29, 2021

आभारी है🙏


हर तरफ महामारी है, 
बीमारी है
फिर भी हम तेरे 
आभारी है
क्योंकि हम में
अभी भी जीवन जारी है

चारो और परेशानी है
लाचारी है
हस्पताल में बेड की
भारी कमी आरही है
फिर भी हम आभारी है
जीने की ललक  जारी है

सांसे की बहुत
आह झाई है
करुण कृंदन से
हवा भारी है
हम तो अब भी आभारी है
हमने जीवन बाकी है

-29/04/2021-

© Deeप्ती

Sunday, April 18, 2021

विलंब ना करो



बदलते हालत
बिगड़ते जा रहे है
वक्त की इस आंधी में
यूं ही बहे जा रहे है
हर रोड़े को कर रहे थे पार
इस बार उसके
चक्रव्यूह में ही
फसते जा रहे है
है प्रभु, विलंब ना करो
कल्की रूप का है इंतजार
करवा दो ये नैय्या पार
एक एक कर के क्यूं
ले जा रहे हो
एक बार में ही
कर दो खत्म
दुनिया का यह व्यापार।

©deeप्ती


Tuesday, March 30, 2021

मेरा आखिरी खत



अपने पूरे होशो हवास में लिख रही हूं में यह खत... मेरा आखिरी खत। में जब चली जाऊं तब मेरा कमरा, मेरी अलमारी सब टटोल लेना। कहीं किसी भी कोने में कोई याद बाकी नहीं रहनी चाहिए।

कहने को मेरा था ही क्या जो मिलेगा बिखरा हुआ। फिर भी मेरी किताबों में पीली पड़ी उस गुलाब की पत्तियां पड़ी होंगी जो पहली बार मुझे मिला था। उस ले जा कर सामने बगिया में बिखेर देना। महक उठेगी वो भी कुछ पल के लिए मेरी यादों से।

मेरे रंगों वाले डब्बे में कुछ रंग सूखे तो कुछ ताज़े मिल जाएंगे। ताज़े रंगों को अनाथ आश्रम में दे आना। शायद कुछ मासूम किलकारियों सिमट जाए और नई तस्वीरें सामने आ जाए।

मेरी खुशियों की गठरी पड़ी है नीचे तहखाने में उसे निकाल लाना। खोल कर उलट पलट कर धूप दिखा देना। सड़क पर बुझी सैकड़ों आंखो को शायद उनसे कुछ रोशनी मिल जाए।

रसोई के मसाल दान में सिमटी होंगी मेरी ख्वाहिशों की पुड़िया। उन्हें बांट देना जा कर सभी कोनो में।

मेरी गलतियों की पोटली भी ताड़ पर दुबकी मिल जाएगी उसे याद से मेरे संग ही जला देना। भूलना मत।

मेरी यही कुछ आखिरी इच्छाएं पूरी कर सको तो ज़रूर कर देना।

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Monday, February 8, 2021

मन का तहखाना


उस फूल से चुरा के खुशबू
गुलाब से ले लिया रंग उधार
पत्तों पर ठहरी ओस की बूंद
रंगों को कर अंखियों में बंद
सारी....कीमती यादों को बांध गठरी में
सहेजा मन मंदिर में

बच्चों की खिलखिलाहट
बड़ों का आशीर्वाद
पति का प्यार
सभी समेट लिया आगोश में
सहेजा....सारे सपनों को
मन के बक्से में

जा कर दिल के तहखाने में
टटोल लेते है इन्हीं यादों को
जब भी मन उदास हो
खोल बक्सों को
जी लेते हैं....
वहीं सुखद पल फिर से

©Deeप्ती


Friday, February 5, 2021

कमरा नंबर १३



"सर एक कमरा मिलेगा, आज रात भर के लिए। बहुत बारिश है और पिछले होटल में एक भी खाली कमरा नहीं था। " बारिश में भीगी कमला ने होटल की डेस्क पर ऊंघते बूढ़े आदमी से कहा।

"माफ़ करना बिटिया, यहां पर कोई कमरा खाली नहीं है। सारे कमरे दिए जा चुके हैं। हां सामने बाथरूम है वहां तुम अपने कपड़े बदल सकती हो।" मैनेजर बंसीलाल ने उसे बताया।

" आपका बड़ा उपकार होगा, अंकल। कृपया मुझे कैसे भी एक कमरा दिलवा दें। कोई तो खाली होगा । आप फिर से चेक करिए ना। " कमला ने ज़ोर दे कर विनती करी।

"अरे बिटिया, होता खाली तो में दे ही देता। यहां इसी काम के लिए तो बैठा हूं में।"

"मेरी ट्रेन छूट गई और इतनी बारिश में कहां जाऊंगी। कोई और जगह हो तो बता दीजिए"

"इस छोटे से गांव में अभी ये दूसरा होटल ही खुला है। कई सालों से बंद था अभी इसी महीने खोला गया है। पूरा खोल दिया सिवाय एक कमरे के।" मैनेजर ने कमला को बताया।

"अंकल उस कमरे को ही खोल दीजिए। बस रात ही तो गुजारनी है। कैसा भी है बस दे दीजिए।" मिमयाते हुए कमला हाथ जोड़ आंखो में बड़े बड़े आंसू भर के बोली।

"बिटिया वो कमरा उस रात के बाद कभी नहीं खुला.... " कुछ गहरी सोच में डूबे हुए वो बोल गए और फिर जैसे किसी नींद से जागे हो "कुछ नहीं, बिटिया वो धूल से अटा पड़ा होगा ३ साल हो गए उसे खोले हुए"

"वहीं दे दीजिए ना। ऐसा भी क्या हुआ होगा उस रात की कमरा बंद ही कर दिया हमेशा के लिए"

"हां... क्या... वो .. नहीं.. नहीं...कुछ नहीं हुआ। यहां सब बहुत अच्छा है" कुछ अटकते झिझकते बंसीलाल बोले।

में आपकी बिटिया जैसी ही तो हूं ना , चाचाजी । मेरी मदत करिए ना। एक ही रात की तो बात है। में कैश देती हूं। आप बस उसी कमरे को खुलवा दीजिए।" राहत की सांस लेते हुए कमला बोली।

"बिटिया तुम समझती नहीं हो। उस कमरे में कोई रहता है। वो दिखाई नहीं देता लेकिन किसी और को भी नहीं रहने देता"

"में इन सब बातों में विश्वास नहीं करती। आप बस उसी को खुलवा दीजिए।" समान उठा व्यग्रता से कमला बोली।

"लेकिन बेटी....."
"लेकिन.. वेकिन कुछ नहीं चाचाजी। बस बढ़िया सी चाय पिलवा दीजिए और कमरे की चाबी थमाइए।" चहकती सी वो पुलक गई।

"ठीक है ... ठीक है... जैसी तुम्हारी इच्छा... " कहते हुए बंसीलाल ने चाबियों का गुच्छा उठाया और लाठी उठा कमरा नंबर १३ की और बढ़ गए.....

........…..…..........................................

बड़ी ही सुहानी शाम थी वो। एक दूसरे कि आंखों में खोए विशाल और सुहानी शादी के बाद हनीमून पर निकले थे। ट्रेन जब हिम्मतपुर स्टेशन पर रुकी तो बिना सोचे समझे दोनों यहीं उतार गए। दोनों को ही यहां गांव की सुंदरता ने खींच लिया था। ट्रेन एक मिनट ही रुकी थी। जैसी ही सीटी बजी दोनों ने अपना अपना बैग पकड़ा और बस उतर गए।

दिल को सुकून देती मीठी सी शांति फैली थी वातावरण में। दोनों एक दूसरे को देख मुस्कराए और हाथों में हाथ डाल आगे बढ़ गए। छोटी छोटी पगडंडी और दूर तक फैली शांति। पास ही पीपल के पेड़ पर कोयल की मीठी कुहुक और उसी की डाल पर बंधे झूले पर एक बुढिया माई सुकून से बैठी थी।

" कितनी सुन्दर जगह है। क्युं सुहानी ?? मेरा तो मन यहीं बस जाने को कर रहा है" विशाल ने सुहानी को अपनी बाहों में भरते हुए कहा।

लज्जाती सुहानी के कपोलों पर लालिमा उतर आई। विशाल की बाहों में सिमटती हुई बोली " हां, मुझे तो शहर की चहल पहल से गांव का शांत जीवन बहुत भाता है। लेकिन फिलहाल मुझे ज़ोर की भूख लगी है। चलो ना कुछ खाने की जुगाड ढूंढ़ते हैं। " कहती हुई वो अपने माथे पर हाथ रख दूर कुछ देखने लगी।

" हां, सच कहती हो चलो पहले कुछ खाते हैं फिर होटल में रुकने का जुगाड करते हैं" यह कह विशाल दोनों बैग को अपने कंधों पर टिकाता आगे की ओर बढ़ता है।

सुहानी उसका हाथ थाम गुनगुनाती हुई आगे बढ़ती है। पेड़ पर पड़े झूले के पास पहुंचते ही वो एक बच्चे सी मचल जाती है। " विशू, रुको ना। एक बार झूला झूलने दो ना।" बड़े प्यार से झूले की तरफ ही देखते हुए विशाल का हाथ कस कर पकड़ रोक लेती है। वहां जाने पर बूढ़ी माई को देख मीठी सी मुस्कान मुंह पर लाती है। बूढ़ी माई भी हंसकर झूले से उतर जाती है। विशाल भी मुस्कुराने लगता है और उसे झूले पर बिठा देता है। ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते दोनों गुनगुनाने लगते हैं। उनकी मीठी आवाज सुनकर पक्षी भी गुनगुनाने लगते हैं।

"भूख बहुत तेज लग रही है" सुहानी विशाल से कहती है।
"हां हां तुम ही झूल रही हो चलो ना कुछ खाने को देखते हैं" विशाल जवाब देता है।

दोनों अपना-अपना बैग कंधे पर टांग आगे बढ़ते हैं। पास से ही एक बैलगाड़ी गुजर रही थी उन्हीं भैया जी से पूछते हैं "आसपास कहीं कोई होटल होगा।"
"हां हां भैया जी पास ही नया होटल खुला है, चलिए मैं ले चलता हूं।" और गाड़ी वाला उन्हें बैठा लेता है और पास के ही होटल पर छोड़ देता है।

"यह तो बड़ा साधारण सा है, है ना विशु" सुहानी होटल की तरफ देखते हुए कहती है।
"इस गांव में होटल मिल गया यह क्या कम है चलो पहले कुछ खाते हैं"
दोनों अंदर गए और दो प्लेट खाना ऑर्डर कर दिया।
"वाह खाना तो बहुत ही टेस्टी है।"
" ऐसा खाना तो मैंने बचपन में दादी के हाथ से खाया था। बिल्कुल दादी के प्यार भरा खाना लग रहा है। अरे विशू यह आचार तो खा कर देखो कितना स्वादिष्ट है।" दोनों हंसते मुस्कुराते खाना चट कर गए।

खाना खाने के बाद दोनों मैनेजर के पास पहुंचे।
"कोई कमरा मिलेगा भाई साहब। "
बूढ़ा मैनेजर अपनी आंखों पर ऐनक चढ़ाकर अपने रजिस्टर से आंखें उठा उनको देखता है "हां बेटा बिल्कुल, यहां कमरे बहुत खाली हैं, कोई आता ही नहीं। आज बड़े दिनों बाद तुम लोग दिखाई दिए हो लगता है रास्ता भूल गए हो। कहो ना कैसे आना हुआ यहां हमारे हिम्मतपुर में?" मैनेजर ने सवाल करा।

"अरे अंकल हमें तो बस यहां की खूबसूरती खींच लाई। ट्रेन यहां से गुजर रही थी, स्टेशन पर जब रुकी तो बस अपने आप को हम रोक ना पाए और हम लोग यही उतर गए। हम लोग हनीमून पर निकले हैं ना।" शरमाते हुए विशाल ने सुहानी की ओर देखा सुहानी भी लजा गई।

"अच्छा-अच्छा जुग जुग जियो। हमारा गांव है ही इतना सुंदर हर किसी का मन मोह लेता है देखना तुम्हें बहुत सुंदर लगेगा । आओ तुम्हारे रहने की व्यवस्था करवा देता हूं। भोलू कमरा नंबर 13 खोलना जरा।"

भोलू आता है और उनके दोनों  बैग को अपने कंधों पर टांग लेता है चलिए बाबूजी आप का कमरा खोल देता हूं और तीनों कमरा नंबर 13 की ओर बढ़ते हैं।

......... * ........ * ............*..........

" देखो विशू कितना सुन्दर नज़ारा है ना यहां से। वो सामने गेंहू का खेत और उसके पास में वो कुआं। पेड़ पर कपड़े का झूला और इतने सारे पक्षी। । ज़िन्दगी ऐसी ही होनी चाहिए .... शांत। है ना?" सुहानी ने अंगड़ाई लेते हुए खिड़की के बाहर झांका।
" हां सच कहती हो" सुहानी के गालों को चूमते हुए शरारत से विशाल बोला। " इतनी सुन्दर जगह है। चलो अपनी शादी शुदा ज़िन्दगी की शुरुवात भी यहीं से करते है।" आंख मारते हुए सुहानी को अपनी बाहों में भर लिया।

शाम घिर आई थी, पंछी अपने अपने घर लौटने लगे थे। दूर कहीं सूरज को भी शितीज ने अपने आगोश में ले लिया था। धीरे धीरे खिड़की के बाहर से झींगुर के गाने सुनाई पड़ने लगे थे।
दोनों एक दूजे में खोए बेखबर थे कि आइने के पीछे से दो आंखें उन्हें घूर रही थीं।

अचानक सुहानी को बड़ी बेचैनी सी महसूस हुई। विशाल को जगाते हुए बोली " विशू .. विशू.. उठो ना। चलो बाहर चलते हैं थोड़ी देर के लिए। ना जाने क्यूं मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा।"
"क्या?? क्या हुआ सुहानी? तबीयत तो ठीक है ना" विशू ने चिंतित हो उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा।
" अरे बाबा में ठीक हूं। बस बेचैनी सी हो रही है। शायद बंद कमरे कि वजह से। थोड़ा खुली हवा में टहल लेते हैं तो अच्छा लगेगा। और फिर खाना भी तो खा लें। "
" हम्म, भूख तो अब मुझे भी लगने लगी है। चलो पहले थोड़ा टहलते है फिर खाना खा कर वापिस आएंगे। स्वीट डिश भी तो खानी है" शरारत भरी निगाहों से सुहानी को देखते हुए विशाल बोला।
उसकी बात का आशय समझ सुहानी लज्जा गई।

दोनों ने कपड़े बदले और बाहर निकाल गए। बाहर सचमुच बहुत ही सुन्दर नज़ारा था। आसमां में दूधिया चांद सितारे जड़ित चुनरी में पारिजात को महका रहा था। हवा में उड़ती भीनी भीनी खुशबू सुहानी को मदहोश कर रही थी।
विशाल भागता हुआ सड़क किनारे पहुंच गया। वहां से किसी जानवर के मिम्याने की आवाज़ आ रही थी। नरम दिल वाले विशाल की आंखों में आसूं आ गए। झाड़ी में से किसी तरह उस कुत्ते के नन्हे बच्चे को बाहर निकाला। खून से लथपथ पिल्ला दर्द से तड़प उठा। सुहानी भी भागती हुई वहां पहुंच चुकी थी। उसने झट से अपनी पानी की बोतल खोली और उसके ढक्कन में पानी डाल पिल्ले के मुंह में डाला। पिल्ले को थोड़ा सुकून मिला।
दोनों ने मिलकर उसके जख्मों को पानी से धोया, फिर सुहानी ने पर्स से बिस्कुट निकाल पानी में भीगा कर उसके मुंह में डाला। वो खुश हो अपनी पूंछ हिलाने लगा। इतने में ही दूर से उसकी मां की आवाज़ सुनाई दी। वो भागती हुई वहां पहुंची। जब अपने बच्चे को खुश देखा तो वो भी निश्चिंत हो गई। पूंछ हिलाती पास आ कर प्यार से उसको चाटने लगी और फिर विशाल सुहानी की तरफ देखा  मानो उनका शुक्रिया अदा कर रही हो। दोनों पिल्ले को उसकी मां के पास छोड़ वापिस होटल की तरफ चल दिए।

तभी पास के ही पीपल के पेड़ पर बैठा उल्लू चीखता हुए वहां से उड़ गया।

.......................... शेष अगले भाग में.....



Thursday, February 4, 2021

दोनों दुनियां





अनुज घर से बुझे मन से निकला। स्कूटर स्टार्ट करने के लिए किक मारा लेकिन वो निर्मोही भी स्टार्ट ना हुआ। थोड़ी देर उसपर अपना गुस्सा निकालते , खीजते हुए दो चार किक और मारे तो घिघियाता हुए सा काला धुआं छोड़ वो आखिर चलती सांसे लेने ही लगा। स्टैंड से उतार उस पर बैठ आगे बढ़ा ही था कि एक ईंट पहिए के नीचे आ गई और स्कूटर डगमगा गया।

ठीक उसकी ज़िन्दगी की तरह। लेकिन उसकी ज़िन्दगी में ईंट नहीं आयी बल्कि पूरी की पूरी ज़िन्दगी ही आ गई हो जैसे।

कितना खुश था वो उस दिन जब घर वालों ने उसके लिए एक सभ्य घर की लड़की को पसंद करा था। महिमा, देखने में बिल्कुल साधारण थी, और कोई खास शिक्षा भी नहीं प्राप्त करी थी। बस बड़ी मुश्किल से बात पक्की हो पाई थी।

दूसरी ओर अनुज भी सीधा साधा सा था, एक छोटी सी दुकान थी आर्टिफिशियल ज्वेलरी की पुराने शहर में। पिता उसके जनम से पहले ही दूसरी दुनिया में जा चुके थे। एक छोटी बहन थी जिसकी जिम्मेदारी भी उसी के कंधो पर थी।  माँ ने जैसे तैसे, छोटे मोटे काम कर बड़े जतन से अपने बच्चों को पाला था।

तीस वर्ष का हो चला था, बहन की शादी एक अच्छे घर में कर दी थी। अब मां का मन था कि अनुज का घर भी बस जाए। घर की हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी सो कोई लड़की भी नहीं मिल रही थी। अब जा कर बात महिमा से पक्की हुई थी।

शादी खूब धूम धाम से करी गई। बड़े ही नाज़ से मां ने बहू का स्वागत करा। लेकिन यह क्या, महिमा ने आते ही सास से कहा कि उसे नए कंगन चाहिए। अनुज से पहली ही रात बोली "अपनी हद में रहना, नहीं तो तेरी  मां के हाथ पैर तोड़ दूंगी। सुबह मेरे से उम्मीद नहीं करना की चाय बनाऊं। जल्दी भी नहीं उठ सकती में। जब उठूं तब मुझे चाय देना और खाना भी खुद ही बनाना। मेरे नाज़ुक हाथ खराब हो जाएंगे इसलिए बर्तन कपड़े तो बिल्कुल नहीं धो सकती।"

अनुज अवाक रह गया। एक ही पल में सब सपने तार तार हो गए। बस वो दिन था और आज का दिन, चकरघन्नी की तरह महिमा के पीछे दौता रहता है। लेकिन ना जाने उसे क्या चाहिए वो किसी भी तरह खुश नहीं होती है। बात बात पर मां को गंदी भद्धी गालियां देती, वो कुछ कहता तो लात घूंसे उसे ही जड़ देती। फिर धमकी देती "थाने में बंद करवा दूंगी। दहेज मांगते हो कह कर जेल भिजवा दूंगी। में लड़की हूं , मेरी बात पर सब को यकीन होगा" उसके मां बाप भी अपनी बेटी का साथ दे कई बार अनुज को गुंडों से पिटवा भी चुके थे। वो कहते घर, और ज़ेवर उनकी बेटी के नाम का दो नहीं तो ज़िन्दगी दूभर कर देंगे।

उधर मां, अनुज को शांत करती की रहने दे। "जो चाहे उसे बोल लेने दे। तू भी उ से डांटेगा या फटकरेगा तो तेरी शिक्षा क्या कहेगी" वो मन मार कर अपमान का घूंट पी कर रह जाता। किस से अपने दिल की बात कहे समझ ही नहीं पाता। दुनिया तो उसे ही कहेगी की मर्द है संभाले बीवी को। लेकिन कैसे? वो हाथ उठाए तो कैसा ज़ुल्मी मर्द। सब सह जाए तो डरपोक। कैसी दुविधा है। कहां जाए। क्या करे किस से कहे कुछ समझ नहीं पाता।

पहिए के नीचे आती ईंट की तरह बस तिलमिला कर रहा जाता। सुबह मिश्री सी मीठी गालियों का बक्सा संजोए घर से निकला था जब वो ईंट की वजह से गिरते गिरते बचा। आगे लाल बत्ती , हरी हुई तो वो चला ही था कि अचानक, लाल बत्ती तोड़ती, सामने से तेज़ आती कार ने उसके स्कूटर को टक्कर मार हवा में उछाल दिया।

वो इतना तेज़ झटका था कि वो उस हवा में उछाल कर हवा ही बना गया। उड़ता हुआ पहुंच गया सतरंगी दुनिया में। यह कौन जगह है? कानो में मीठी शहनाई सी बजने लगी। चारों ओर सुरीला संगीत व मनमोहक खुशबू फैली थी। रंग बिरंगे फूलों से हर कोना सजा था। उसकी नजर क़दमों पर गई तो यह क्या वो तो बादलों पर खड़ा था। नीचे बहुत नीचे उसका बेजान शहीर खून से लथपथ पड़ा था। भीड़ ने चारो और से घेरा हुआ था।

लेकिन वो अब जहां खड़ा था वो इतना सुन्दर व सुकून भरा था जिसकी उसने कल्पना भी नहीं करी थी। इतने वर्षों बाद आज उसे शान्ती मिली थी।

🙏ॐ शान्ती🙏