Monday, January 17, 2022

समय

इक समय की बात है
सड़को पर थी रंगीनियां
दिलों में थी गर्मियां
मिलते थे सब गले मिल के
पीते थे चाय साथ में

ना जाने कहां खो गया
वो मीठा मिलनसार वक्त
आज तो हर कोई है कतराता
मिलने से अब घबराता
चाय पीना तो दूर
साथ बैठने से भी कटता

समय समय की बात है
वो समय ना रहा तो क्या
यह समय भी कहां रहेगा
समय ही तो है साशवत
बाकी सब मिथ्या भ्रम है

१७/०१/२०२२

Sunday, November 21, 2021

ख्वाब


ख्वाब में हम मिले थे तुमसे
तुम वहां दीवार से सट कर खड़े थे
होठों पर हल्की मुस्कान लिए
मुझे ही निहार रहे थे

कहो ना प्रिय
मन की बातें मुझसे
कुछ ना रखो दिल में
हर भावना बह जाने दो

में भी बैठी थी नदी किनारे
करती तुम्हारा ही इंतजार
कैसे पहला कदम बढ़ाती
मन की बगिया पुलकित थी

कहो ना प्रिय
खोल दो राज उस मुस्कान के पीछे
धड़कन बढ़ने लगी है 
कुछ सुनने को तरसी हैं

ख्वाब में ही सही
हुई तो मुलाकात हमारी
शब्दों ने ना लिया रूप
दिल ने फिर भी हर बात समझी

©Deeप्ती


Sunday, September 19, 2021

हमारा सच्चा दोस्त


मनुष्य जीवन में कई दोस्तों से मिलता है। लेकिन जानते हैं सबसे प्यारा दोस्त हमारा , हम खुद होते है। हमारी अंतरात्मा हमे पल पल सही दिशा दिखाती है। वही हमारी सच्ची दोस्त है।

बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे. उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा करते थे।

वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,

“आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं।”

आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।

ऋषिवर बोले , “प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है. मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें.

यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा.”

*तो क्या आप सब तैयार हैं?”*

” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले.

दौड़ शुरू हुई.

सभी तेजी से भागने लगे. वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे. वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था.

सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।

“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न किया।

यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े…. इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की.”

“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ”, ऋषिवर ने आदेश दिया.

आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे. पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे. सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे.

“मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं.” ऋषिवर बोले।

“दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था , और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को मेरा इनाम है।”

पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है. पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है.

अतः यहाँ से जाते -जाते इस बात को गाँठ बाँध लीजिये कि आप अपने जीवन में सफलता की जो इमारत खड़ी करें उसमे परोपकार की ईंटे लगाना कभी ना भूलें , अंततः वही आपकी सबसे अनमोल जमा-पूँजी होगी।”

जीवन में हमारा सबसे प्यारा दोस्त खुद हम ही होते हैं। हमारे कर्म हमे अपने से प्रेम करना सीखते हैं। जब हम अपने आप से प्रेम करना सीख जाते हैं तब विश्व की हर वस्तु से हम प्रेम करने लगते हैं।

Tuesday, June 15, 2021

अलविदा

घुंघरू से खनकते होंगे बोल
चट्टान से फौलादी होंगे वचन
मां के आंसुओं का ना था वजूद
बागीचे मे तब खिलते थे गुलाब 
कैक्टस का ना था हिसाब

कितना कुछ समेट रखा था 
ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
बोली भी नहीं पाई थी सीख
क्या मांग नहीं सकते थे 
जीवन की अपने भीख?

जाना तय ही था, तो 
मां के आंसू भी ले जाते
हमारे सारे सपने भी ले जाते
यह जो टीस है ना दिल में मेरे
वो भुलाए नहीं भूल पाती में

ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
अलविदा हम कह ही ना पाए
ना ही कभी कह पाएंगे
स्नेह भरा हाथ तुम्हारा
सदा सर पर ही पाएंगे।
15/06/2021
©Deeप्ती

Tuesday, June 8, 2021

सुनसान घर


सं १९३०

कभी उस आंगन में ढेरों किलकारियां गूंजा करती थी। कितना गर्व था हरिप्रसाद को अपने पूरे परिवार को हंसते खेलते देख कर।

हरिप्रसाद, एक छोटे से गांव सोंक से शहर आए थे। दिन में छोटे मोटे काम कर लेते थे, शाम को सड़क की बत्ती के नीचे ही अपना बिस्तर जमा लेते, फिर शुरू होता उनका पढ़ाई का कार्यक्रम। वो पूरी लगन से पढ़ाई करते थे। 

उस ज़माने में खुद पढ़ाई करना और इम्तिहान में बैठ जाना, आम था। वक्त बीतता गया और वो पूरी लगन और निष्ठा के साथ दोनों काम बखूबी करते रहे। अपने महनत से उन्होंने दांतों की डाक्टरी पूरी करी।
वहीं बाज़ार में छोटी सी क्लीनिक खोल ली। 

पैसे इकट्ठे कर के जुगाड़ लगाई और एक आलीशान कुर्सी भी खरीदी। जो ऊपर नीचे हो जाती थी, जिसपर मरीज़, बैठ अपने दांत दिखाते थे। वे बड़ी लगन से सब मरीजों का इलाज बखूबी करते रहे। जल्द ही वो अपने शहर के जाने माने दंत चिकित्सक माने जाने लगे।

इस बीच उनकी शादी ,बैकुंठी, से हो गई थी। जो सुंदर ही नहीं बल्कि ग्रह कार्य में निपुण भी थी। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी परन्तु , डाक्टर साहब के साथ रह कर उनसे काफी कुछ पढ़ना सीख गई थी। घर में दो नन्हे पुत्रों की किलकारियां गूंजने लगी थी। इस बार बड़ी आस थी कि पुत्री आ जाए। और हुआ भी ऐसा ही, उनकी गोद में नन्ही परी आ गई।

वक्त गुजरता रहा। डाक्टर साहब को, अपना कोई परिवार याद ना था, इसलिए वो खूब बड़े परिवार की कामना करते थे। उनका घर आंगन अब तीन लड़के और पांच लड़कियों से भर गया था। 

अहा , कितना मधुर संगीत सा प्रतीत होता था, उनका आंगन। घर में घुसते ही जो मधुरम किलकारियां सुनाई देती, तो उनका रोम रोम पुलकित हो जाता। जो कमी उन्होंने बचपन में महसूस करी थी - अकेलेपन की, वो अब पूरी हो गई थी।

घर आंगन गूंजित था
नन्ही बोलियों से
हर कोना जग मग था
बच्चों की मुस्कान से

उनका सीना फूल ना समाता, जब वे घर पहुंचते और सब बच्चे उन्हें चारों ओर से जकड़ लेते, कहते " बाबूजी, बाबूजी - आज क्या लाए हो हमारे लिए?" फिर वो चुपके से जलेबी की पुड़िया अपनी लाड़ली बैकुंठी को थमा देते। "जा बच्चों में बांट दे"

छोटी छोटी खुशियों से भर गया था घर संसार उनका। वक्त का पहिया अपनी गति से बहता रहा। और धीरे धीरे घोंसला छोड़ उनके पंख पसारने का वक्त आया। एक के बाद एक, सब पंछी उड़ गए अपने अपने टुकड़े के आसमान को ढूंढ़ने। 

आंगन सूना हो गया। वो अपनी बैकुंठी के साथ अकेले रह गए। दस कमरों का विशाल घर अब काटने को दौड़ता था। हर कोना अंधकार की गलियों में खो गया था। बागीचे का वो आम का पेड़ अपनी बाहें और फैला रहा था, मानो दूर उड़ते बच्चों को समेटना चाह रहा हो। उसकी बाहें भी अब बेजान सी इंतजार करती है, कभी तो फिर यह आंगन महकेगा। उसके आम का रस फिर मिठास घोलेगा।

हरिप्रसाद, नितांत अकेले उस आम के सहारे जीवन बसर करते बांट जोतते रहते है। बैकुंठी भी तो ना रही अब। उनका आंगन बेहद सूना हो गया। 

डाकिया आता था उनके साथ वक्त गुजरने, कभी कभी। आज हरिप्रसाद का मन बेचैन था । डाकिए ने आवाज़ दी तो हरिप्रसाद अनायास ही बोल पड़े
"अब यहां कोई नहीं रहता।"

********

सफेद रूह


रूही किन्हीं खयालों में खोई चली जा रही थी। आज मीना जो उसकी सहेली है उसने बड़ी ही विचित्र बात बताई। क्या ऐसा सच मे हो सकता है भला?? 

*********कुछ देर पहले*******

मीना :- रूही पता है कल मेरे बाबूजी रेल से वापिस घर आ रहे थे। चंदन घाटी से रेल गुजरने वाली थी। वहीं चंदन घाटी जहां प्रेत आत्माएं बस्ती है" 

रूही :- " प्रेत आत्माएं...??? वो क्या सच में होती है..? हुंह में नहीं मानती। ऐसा भी कभी कुछ होता है भला। आत्मा सिर्फ आत्मा होती है। प्रेत व्रेत कुछ नहीं होता।"

मीना :- होता है रूही, ज़रूर होता है। अब तेरे मानने ना मानने से थोड़े ही कुछ होता है। मेरी पूरी बात तो सुन ना। फिर तय करना क्या सही है क्या झूठ। ठीक है..??

रूही ने अपनी गर्दन हां में हिलाई तो मीना ने आगे कहा।

" हां तो ट्रेन चंदन घाटी के पास पहुंचने वाली थी। सभी यात्रियों ने अपनी अपनी खिड़की बंद कर ली थी। तू तो जानती है मेरे पिताजी इन सब में विश्वास नहीं करते, सो उन्होंने अपनी खिड़की बंद नहीं करी। वो अपनी किताब पड़ने में मशगूल थे। तभी ट्रेन घाटी की सुरंग से गुजरने लगी। पल भर में ही ट्रेन में अंधेरा छा गया।"

"अंधेरा कैसे छा गया..? जब ट्रेन सुरंग में जाती है तो ट्रेन की सभी बत्तियां जल जाती है ना.. कुछ भी बोलती है मुझे डराने के लिए" रूही ने तुरंत मीना को टोक दिया।

" हां .. वही तो। मैने भी बिल्कुल यही कहा था जब पिताजी ने यह किस्सा सुनाया था। तब उन्होंने बताया की सभी परेशान थे कि बत्ती अपने आप जली क्यूं नहीं.. की अचानक, एक ज़ोर का झटका लगा, एक दो पल के लिए सभी अस्त व्यस्त हो गया था। अंधेरा था तो कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था। फिर दो चार पल बाद ट्रेन सुरंग से बाहर आ गई। ट्रेन की गति धीमी हो गई थी और धीरे से चिं.... चीं... करती वो रुक गई।"

"क्यूं रुक गई..? तुम तो बता रही थीं कि सभी डरते थे उस इलाके से .. फिर ट्रेन क्यूं रोक दी ड्राइवर ने..?"

" यही जानने के लिए कुछ यात्री उतरने लगे..इतने में पिताजी की नजर अपनी किताब पर गई जो वो पढ़ रहे थे.. वो गायब हो गई थी।"
" हुंह झटके की वजह से गिर गई होगी, सीट के नीचे चली गई होगी"

"अरे सुन तो बाबा। ऐसा ही पिताजी ने भी सोचा , तो वो इधर उधर नजर घुमाने लगे - सीट के नीचे देखा, पीछे देखा, यहां तक कि खिड़की के बाहर भी देखा। की कहीं झटके से उछल कर बाहर तो नहीं गिर गई। वो गायब हो गई थी... गायब... सच्ची"

"हुंह तो क्या हुआ एक किताब ही तो थी, गिर गई होगी। किसी के समान के नीचे फंस गई होगी। इसमें इतना घबराने की क्या बात है..?" 

" बात है। तभी तो बता रही हूं। हां तो जो यात्री उतर गए थे ट्रेन के रुकने का कारण जानने के लिए। वे इंजन तक पहुंच गए। ड्राइवर भी नीचे उतर चुका था और कुछ विस्मय से पटरी को देख रहा था।

वहां पहुंच कर लोगों ने पूछा क्या हुआ.. ट्रेन क्यूं रोक दी?? तब ड्राइवर ने पटरी पर इशारा करा। तब तक पिताजी भी वहां पहुंच चुके थे, उन्होंने देखा कि पटरी पर थोड़ा राल रंग पड़ा है और इस पर कुछ कागज फड़फड़ा रहे हैं। पास जा कर देखा तो वो कोई लाल रंग नहीं था बल्कि ताज़ा खून था। हां सच्ची। खून की महक होती है ना तो उसी से पहचाना।"

" कोई जानवर कट गया होगा ट्रेन से..? बेचारा.. च.. च.. च.." 

"अरे नहीं। ट्रेन तो पहले ही रुक गई थी कटता कैसे। कोई जानवर भी नहीं था वहां। ड्राइवर ने बताया कि उसने किसी को पटरी पर सोते देखा था दूर से, सो उसने ट्रेन को रोक दिया। लेकिन जब उतर कर देखा तो कोई नहीं था बस खून था और पास में एक किताब थी।

जानती हो वो किताब कौनसी थी?? वहीं जो पिताजी पढ़ रहे थे" मीना ने अपनी आंखे बड़ी करते हुए आखिरी बात बताई।

"वहीं किताब थी..? सच्ची..??" अब रूही की रूह कांपने लगी। 

"चल रूही अब मैं घर जाती हूं। पिताजी को अच्छा नहीं लग रहा है, जब से लौटे हैं बहकी बहकी बातें करने लगे है। डाक्टर बाबू को बुलाने जा रही थी में। अंधेरा होने से पहले घर पहुंचना है मुझे तो।" मीना तेज़ी से साइकिल को पेडल मार दवाखाने की ओर चली गई।

रूही की जान हलक मे आ गई थी। "मीना फिर कोई कहानी तो नहीं बना रही? मीना को आदत है किस्से कहानी गड़ने की। वैसे भी बड़ी जीवंत कहानियां सुनाती है.." घबराती हुई रूही अपने घर की ओर चल दी। उसका घर वैसे भी उस विशाल पीपल के पास से गुजरता है, जहां सुना है की प्रेत आत्माएं रहती है। 

वो कदम जल्दी जल्दी बढ़ाने लगी। तभी अचानक तेज हवा सर्र सर्रर... करती चलने लगी। वातावरण में अजीब अजीब आवाजें थी साथ में भयानक खामोशी भी। रूही को लगा मानो कोई उसके पीछे है। वह अपनी गति और तेज करती है, ऊपर बादल भी छा गए थे।

अचानक उसकी नजर दूर से एक सफेद आकृति पर गई जो तेज़ी से उसकी ओर आ रही थी। उसने भागना चाहा लेकिन कदम साथ ही नहीं दे रहे थे। चीखना चाहा, लेकिन आवाज़ हलक में अटक गई थी। 

वह भूतिया आकृति उसकी ओर तेज़ी से आ रही थी.... तेज़..... बहुत तेज़......

"आह... आ..आ" रूही ठोकर खा ज़मीन पर गिर गई थी, घुटने से खून बहने लगा। उसकी परवाह ना करते हुए वो उठी और भागने लगी घर की ओर... सफेद आकृति काफी करीब आ गई थी। घनघनाती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ के साथ एक शैतानी हंसी हंसते हुए......।

रूही के हाथ पांव फूल गए थे, सर से पांव तक पसीने से तरबतर हो गई थी। अब कदम आगे नहीं बढ पा रहे थे, वो वहीं धरती पर अचेत हो गई। 

जब आंख खुली तो देखा.. सामने मीना बैठी है उसके घुटने पर पानी डाल रही है।

"मीना... वो.... वो... मेरे पीछे आ रही थी...??"

"अरे कोई नहीं था रूही। में ही आ रही थी।"
"लेकिन..... लेकिन वो सफेद थी... पांव भी नहीं थे"
" मैं ही थी.. तुझे डरा रही थी.. साइकिल पर सफेद चादर ओढ़ कर आ रही थी.. " कह कर मीना ज़ोर से खिलखिला के हंस दी.. 

"बुद्धू, कहानी सुना रही थी में। इतना भी नहीं जानती क्या मुझे..?" 

******

खोना

कॉरोना काल ने कितनों को लील लिया। ऐसा लगता है भगवान को बहुत सारी आत्माओं के साथ रहने का मन है। 

जीवन में हमे कितने ही लोग मिलते है, लेकिन उनमें से कुछ ही होते है जो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है। 

वो एक सिहनी सी 
चपल हिरनी सी
ऊर्जा की थी अथाह सागर
ममता से भरी गागर
हिम्मत से बड़ना हमे सिखाया
वजूद को अपने पहचानना बताया
जो पहचान मेरी आज है
वो सब तेरी ही देन है 
एक नजर देख भी ना पाए
अंत में तुझसे मिल भी ना पाए
भूल जाना चाहे इस जग को
लेकिन हम ना भूलेंगे तुझको
अपने बढ़ते हर कदम पर
याद करते रहेंगे तुझको।

मेरी गुरु तुम्हे प्रणाम। जीवन भर में आप के जैसा ना गुरु मिला है और शायद ना ही आगे मिल पाएगा। 

में एक caterpillar की तरह अपने cacoon में बंद थी। वो आप ही थी जिसने मुझे निकाला बाहर वहां से, पंखों से मेरे, पहचान कराई। कितना कुछ सीखा है आपसे अपने विषय के बारे में और जीवन के भी बारे में। जहां भी रहें आप, अपनी प्रेरणा देते रहना।

हरी ॐ