मूसलाधार बारिश में मिटटी से उठती सोंधी खुशबू में लिपटी वो कचनार की मासूम सी कली का खिलखिलाकर हसने का अंदाज़। वह एहसास आज भी याद है मुझे। उन दिनों जब बहुत गर्मी हुआ करती थी तब गांव की कुछ अलग ही शक्ल हुआ करती थी । बिजली तब तक पहुंची नहीं थी गांव तक, सिर्फ बिजली से चलने वाले जादुई कूलर और पंखो के किस्से सुने थी , उमेश भैया से, जो शहर में किसी कपड़ों की फैक्ट्री में काम करते थे। वहां मशीने थी जो बिजली से चलती थीं। खैर उमेश भैया के पास तो उनकी और शहर की अनेकों कहानियां थी। अभी वो बताने बैठे तो रात यहीं बीत जाएगी ।
गर्मी से बचने के लिए गांव में बर्फ का गोला वाला बर्फ बेचने आया करता था। दूर से ही मंदिर की घंटी वाली गाडी की टन~ टन ~ टन ~ आवाज़ आ जाती थी और हम सब बच्चे लपक कर बर्फ वाले की गाडी को यूँ घेर लेते थे मानो किसी जलेबी के गिरे हुए टुकड़े पर सैकड़ों चीटियों की फौज चढ़ गयी हो। हम उसकी गाडी पर लगी चकरी घुमाते थे और चकरी पर लगी सुई जिस नंबर पर रूकती हमे उतने पैसे की बर्फ मिल जाती थी १० पैसे में कभी कभी हमे १ रुपए वाली भी मिल जाती थी।
वो दिन आज भी याद आते हैं क्यूंकि अब वो बात कहाँ जो तब गर्मी में हाथ का पंखा झलने और मटकी का ठंडा पानी पीने में था। पूरी दुपहरी नीम आम के पेड़ के नीचे बैठ बच्चे बुड्ढे और जवान सभी अपना समय व्यतीत करते थे. गांव की बात ही कुछ और थी। वो पेड़ की डाल का झूला , भरी दुपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे का खेल। कोयल की कूहक कानो में मिश्री सी घोल जाती थी. माँ के दुलार के बीच पड़ोस वाली कमला चाची की मटकी कुएं से उठा में और भाई झट से देहडी पर रख मैदान की ओर दौड़ जाते थे।
गर्मी लगने का न डर होता था न बारिश में भीगने का , बल्कि हमे तो माँ बाहर भगा देती थी जब भी बारिश होती थी। कमला चाची , मुन्नी काकी , पिंकी की दादी हमे पानी में भीगने को मना करते थे वहीँ माँ हमे कागज़ की नाव बना कर हमारे साथ खुद भी बच्ची बन जाती थी। मैंने कई बार देखा था माँ को ,ना जाने क्यों, खेलते खेलते अपनी पल्लू से आँखों की कोर पोछती रहती थी। शायद उन्हें हमारी वो बहन याद आती थी जो पैदा होते ही मर गयी थी , ऐसा दादी कहती थी और ये कहते उनकी आँखों में भी मोती झलक जाते थे।
पिताजी तो हमेशा अपनी मूछ पे ताव देते वर्जिश करते थे। फिर कड़क धोती कुरता पहन खेत का मुआयना करने निकल जाते थे। "कल्लू , इस बार लगता है फसल अच्छी होगी। रब की मेहर है , बारिश सही वक़्त पर आ गयी। और बीज भी अच्छे डाले थे। धयान रखना कोई रात में बदमाशी न करे हमारे खेत से " रोबीली आवाज़ में सब को काम समझते वो भी चौपाल चले जाते। वहीँ हुक्का गुड़गुड़ाते कुछ देर गांव के बच्चो को पढ़ाते और रोटी खाने घर आ जाते थे। फिर मेरे और भाई के कान खींचे जाते क्यूंकि आज भी हम उनकी पाठशाला में जो नहीं गए थे।
उनके समझने का हमपर कोई असर नहीं होता था और दादी भी हमे लाड से अपनी गोद में छुपा लेती थी। फिर एक दिन माँ ने कुछ ऐसा कहा की हमारी बुद्धि खुली , जैसे बिजली का झटका लगा दिया हो , ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमने ना जाने कितना कीमती वक़्त बर्बाद कर दिया हो। माँ कल्लू से कह रही थी "अबकी बार जब बीज की बुआई करो तब मेरे दोनों गोपालों को भी ले जाना कुछ काम करवाना। ये भी अब से तुम्हारा हाथ बटाएँगे
पढाई लिखायी में तो मन लगता नहीं। उमेश को देखो दो अक्षर पढ़ लिया तो शहर के एक कारखाने में वो क्या कहते हैं मैनेजर - हाँ मनेजर बन गया है। पैसा तो अच्छा मिलता ही है , रुतबा है सो अलग। सुना है रोज़ सुबह उसे सब सलाम करते हैं। अब हमारे पूरब और प्रकाश की ज़िन्दगी तो यहीं गिल्ली डंडा खेलने और खेत जोतने में ही जाएगी। पिताजी के सामने जाएँ , कुछ समझदारी की बात जाने तब तो कुछ अक्ल खुले । बस मेरा पल्लू पकड़ छुपे रहते हैं। इनके बापू कह रहे थे की अब से इनका खेलना कूदना बंद बस अब खेती ही करेंगे। "
मेरे तो जैसे सब ख्वाब टूट गए - कितना सोचा था की अबकी बार कागज़ की नाव प्रतियोगिता रखेंगे , दूर आसमान में पतंग उड़ाएंगे और सब दोस्तों के साथ बस पूरे दिन आम अमरुद के पेड़ पर कृष्ण कनहैया बन आराम फरमाएंगे। "भैया.... भैया सुना आपने पिताजी का फरमान की कल से खेत में काम करना है हमे। "
"हाँ सुना, प्रकाश , मुझे भी समझ नहीं आ रहा की क्या करा जाये। चल माँ से बात करके देखते हैं शायद कुछ सुझाव हो उनके पास "
और हम दोनों डरते सहमते माँ के पास पहुंचे। में उनका सर दबाने लगा और भैया उनका पैर। "माँ आज बहुत थकी हुई लग रही हो आओ हम आपको थोड़ा आराम दे दें " पूरब भैया धीमे से बोले ।
गुस्से में माँ ने हाथ झिटक दिया "जाओ यहाँ से - में तुम्हारी चापलूसी सब समझती हूँ। एक ना सुनूँगी तुम्हारी, तुम्हारे पिता सही कहते हैं तुम दोनों के लिए बस खेत ही ठीक है "
मेरी आँखों में आंसूं आ गए। तभी दादी वहां आयी और मुझे गोद में छुपा लिया बोली "देखो बच्चों मेरे पास एक उपाय है तुम्हारे लिए। अगर पढ़ने का मन बनाया तो बस थोड़ी देर की पढाई और उसके बाद खूब मस्ती करने को मिलेगी। बोलो मंज़ूर है तो में तुम्हारे पिता से बात करती हूँ। नहीं तो कल से कल्लू संग लग जाना खेत जोतने। "
मैंने कुछ सोचते हुए भैया की तरफ देखा भैया को भी ये सुझाव पसंद आ रहा था। हम दोनों ने अपनी गर्दन झट से हां में हिला दी। और जैसे जादू हो गया माँ ने लपक कर मुझे और भैया को अपने आँचल से संवारा और झट से हलवा ले आयी। हम दोनों को गले लगाया और फिर बस आँखों से गंगा जमुना बहाने लगी।
"अरे अरे माँ। . क्या करती हो अब ऐसा क्या कह दिया हमने की आज आपको छुटकी की याद फिर आ गयी. उसे याद कर रोया मत करो। " मैंने माँ के आँसू पोंछते हुआ कहा
तब माँ दादी की ओर देखते हुए उनका कुछ इशारा पा हम दोनों को अपने समीप बिठा बोली "बच्चों आज मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू हैं की तुम दोनों पढ़ने को राज़ी हो गए हो। क्यूंकि में जानती हूँ की यदि गांव वाले पढ़े लिखे होते तो उस दिन हमे रोका नहीं होता। तो शायद आज हमारे बीच तुम्हारी छुटकी भी होती। दादी ने भी हाँ में हाँ मिलायी।
दादी आगे बोली "जिस दिन छुटकी पैदा हुई थी उस दिन चंद्र ग्रहण पड़ा था और खूब बारिश भी हुई थी। छुटकी पैदा होते ही बीमार हो गयी थी यहाँ पर दायी ने कहा की शहर का डाक्टर ही बचा सकता है उसे। लेकिन अनपढ़ और अंधविश्वासी गांव वाले अड़ गए की ग्रहण में कोई बहार नहीं निकलेगा। फिर भी तुम्हारे पिताजी ने किसी तरह सबको समझा कर बैल गाड़ी निकल ही ली लेकिन उसका पहिया कीचड़ में धंस गया और निकलने को तैयार नहीं हुआ , उस वक़्त कोई भी मदत को आगे नहीं बड़ा । शहर तो बहुत दूर है यहाँ से। पैदल जाते भी तो पूरा दिन लग जाता वहां के हस्पताल पहुँचने में। "
माँ रुंधे गले से आगे बोली "बस गांव वालों की अनपढ़ मानसिकता और पक्का अच्छे रास्ते के आभाव ने हमसे हमारी नन्ही छुटकी ले ली "
मुझे इतना गुस्सा आया उस दिन की बस मैंने ठान लिया की में खूब पढाई करूँगा और अपने गांव के सभी लोगो को भी शिक्षित करूँगा।
हमे उस दिन माँ की ख़ुशी भरे आँसू समझ नहीं आये थे , लेकिन आज सब आता है समझ । उस दिन जो पढाई का कीड़ा हाँ कीड़ा ही कहेंगे , जो डाला था - वही आज हमे इस तरक्की की डगर पर ले आया है। भैया आज एक कलेक्टर बन गए हैं उन्हें सरकार ने बड़ा घर दिया है। अब वो वहीँ भाभी और प्यारी पिंकी के साथ रहते हैं। उन्होंने जी जान लगा कर गांव से शहर तक की एक सड़क बनवा दी है। अब शहर जाना काफी आसान हो गया है।
और में अपने गांव से कुछ ज्यादा ही जुडा रहा इसीलिए में अपनी पढाई को खेत में ले आया। अब में यहाँ ट्रेक्टर , टूबवेल आधुनिक तरीके से फसल करवाता हूँ। जी हाँ करवाता हूँ , हमारे खेत पर ५० लोग काम करते हैं। और में अपने एक छोटे से हस्पताल में बीमारियों का इलाज़ करता हूँ । अपनी प्रैक्टिस अपनों के बीच रह कर करता हूँ । आखिर उस दिन पढाई के कीड़े ने मुझे एक डॉक्टर जो बना दिया। और अब मेरी यही कोशिश रहती है की कोई भी छुटकी डॉक्टर या दवाई के आभाव में अपना दम न तोड़े।
माँ की आँखों में ख़ुशी झूम जाती है जब भी मुझे गांव में बच्चे के साथ ही बड़े भी सलाम करते हैं। इज्जत से डाक्टर बाबू साहब पुकारते हैं।
गांव के छोटे से स्कूल में पिताजी बच्चों को पड़ाने के साथ ही छोटी छोटी रंगीन कहानियां भी सुनाते हैं। और कभी -कभी में भी बच्चा बन उनकी कहानियों की हसीं दुनिया में खो फिर से बच्चा बन जाता हूँ।
उस टूटे कुल्हड़ में चाय और बासी रोटी
आम की डाल पर झूलती उसकी अल्हड़ चोटी
मेहंदी की खुशबु से महकती हथेली गोरी
माँ की वो मीठी सी लोरी
कानो में गूंजती आज भी है
बरगद के नीचे वो दोस्तों की महफ़िल
सूखी रेत सी हाथ से गयी फिसल
बेफिक्र चहकते मस्ताते कदम
बेख़ौफ़ खेलते दौड़ते हुए बेदम
वो हसरतें आज भी मचल जाती हैं
टूटी पुलिया पर साईकल चलाना
मैदान में यूँ पतंग उड़ाना
पोखर में छलाँगें लगाना
रेतीली पहाड़ी पे लोटपोट होना
दिल में टीस आज भी छोड़ जाती हैं
बाग में मस्त हो आम तोडना
पंछी के साथ उड़ने को मचलना
पाठशाला में इतराते बस्ता ले जाना
पेड़ के नीचे गहरी नींद सो जाना
उस ख्वाब में मुस्कराहट आज भी जीती है
~ ०१/०१/२०१५~
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