Friday, November 22, 2019

नयी सुबह

पुष्कर २०१५ 



एक अंत तो एक शुरुवात 
जैसे हों दिन और रात 
एक ही सिक्के के दो पहलु 

यादों से आस तक का सफर 
पल में तय कर लेता है 
तजुर्बे और विश्वास 
की तर्ज़ पर 
नए सपने संजो लेता है 

टूटे वादों को निभाने की 
कसम खाता है 
और जो छूट जाता है 
उसपर आँसू नहीं बहाता 
नयी राह से नयी दिशा पकड़ 
आगे बढ़ता जाता है। 

सच्ची सीख देता है हमको 
ये विचित्र और अद्भुत 
दिसंबर से जनवरी तक 
का यह छोटा सा सफर
जीवन और मृत्यु भी तो 
यही है बस 
दिसम्बर से जनवरी के एक पल का सफर।  
~ २२/११/२०१९~ 

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Monday, November 4, 2019

लम्हे

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लम्हे तो लम्हे है हर पल 
गुज़रते जाते हैं 
सूखी रेत से फिसलते जाते हैं 
कुछ सीख लिया तो अच्छा 
नहीं सीखा तो भी अच्छा 
मुस्कराते रहो 
गुनगुनाते रहो 
लम्हो का यही फ़साना है। 

क्या सोचे क्या हुआ 
क्या समझे क्यों हुआ 
पीछे मुड़ कर देखे क्यों 
आगे नए सपने खड़े 
कुछ नए लम्हों 
में जकड़े हुए 
आओ हाथ बढ़ा के 
थाम ले झोली भर-भर कर। 

आओ कुछ नए लम्हे गढ़ें 
कुछ नयी यादे बनाएं  
थोड़ा थोड़ा जी लें 
थोड़ा थोड़ा रम लें 
नादाँ लम्हों से 
कुछ और सीख लें 
ये ही तो हैं बस हमारे 
अपने आप को खोज लें। 


~ ०४/११/२०१९~ 

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Thursday, October 24, 2019

दिवाली 2019



दिवाली आई दिवाली आई
दीपों की माला लायी 
आओ मिलजुल कर सब 
करें सफाई जी भर कर 
देखो उस कोने को 
धुल से अटा पड़ा है 
पुरानी यादों का कूड़ा 
घर भर में फैला पड़ा है 


दिवाली आई दिवाली आई
खुशियों की सौगात लाई 
आओ अंदर झांक के अपने 
करें सफाई दिमाग के अपने 
देखो कैसे जाले लगे हैं 
चीर के उखाड फेंकने हैं 
मन में जमे मलाल का मेल 
साफ़ करने का पैगाम लाई 

दिवाली आई दिवाली आई
रौशनी की जगमग बहार लायी 
आओ मिलजुल के काम करें 
दिल के अंधियारे दूर करें 
रिश्तों की मिठास घोल 
जीवन को कुछ और मीठा कर जाएँ 
ग़लतफ़हमी के अंधियारे 
दूर कर बढ़ चलें रौशनी की ओर 

दिवाली आई दिवाली आई
खुशियां अपरम्पार लायी। 

-शुभकामनायें दीपो के त्यौहार की-
~ २४/१०/२०१९ ~ 
.
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Monday, September 16, 2019

अल्फ़ाज़



कुछ ख्यालों के ताने बाने
बिखरे थे कलम के ज़रिये
पहुंचे शुष्क पड़े पन्नो पे
पिरो रहे थे माला सी

एक के बाद एक
कई फ़साने को जोड़ तोड़
भरा खज़ाना शब्दों से
खोल उन्ही पन्नो को जब देखा
झाँक रहे थे सब मुस्काते

जैसे कह रहे हो
"देखा! कैसे चमक रहे हैं
अफ़साने अपने गढ़ रहे हैं
हम ही तो है तेरे वो ख्याल
जो ना जाने कब से सिमट रहे हैं"

शर्मा के हाथ बढ़ाया
हाँ! आज मिली है मंज़िल उन्हें
अरमानो ने पंख लगा
आज देखा है उन्मुक्त गगन।

~ १६/०९/२०१९~

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Monday, August 19, 2019

सब रब दी मर्ज़ी

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राजा महेष्वती के दरबार में अनेकों बुद्धिजीव थे।  उनमे से एक दरबारी हमेशा हर बात पर "प्रभु इच्छा - सब उसके हाथ में है " कहता था।  तो वहीँ दूसरी ओर दूसरा दरबारी कहता था "जो राजा की इच्छा - सब उसकी मेहर है "
राजा के लिए दोनों ही प्रिय दरबारी थे परन्तु हमेशा सोचता की किसके शब्द सच्चे हैं। वो हमेशा यही जाने की कोशिश करता की आखिर सच क्या है ? क्या प्रभु इच्छा सबसे बड़ी है या खुद उसकी इच्छा। इस सवाल का हल ढूंढ़ने का उसे एक तरीका मिला।  उसने तुरंत दो कद्दू लाने का हुक्म दिया।  एक को बड़ी सावधानी से कटवाया और उसे खाली कर उसमे हीरे जवाहरात भर दिए और फिर उसे ठीक पहले की तरह ही जुड़वा दिया। और दुसरे कद्दू को वैसा ही छोड़ दिया। 
अगले दिन, राजा ने दोनों बुद्दिजीव दरबारियों को बुलवाया और साधारण कद्दू 'प्रभु इच्छा' कहने वाले को दे दिया और दूसरा हीरे जवाहरात वाला "राजा इच्छा ' कहने वाले को प्रेम और आदर के साथ दिया। दोनों अपने अपने कद्दू अपने साथ घर ले गए। 
दुसरे दिन दरबार लगा और राजा ने दुसरे वाले दरबारी से उसके कद्दू का स्वाद पुछा।  दरबारी इधर उधर बगलें झांकने लगा।  फिर कुछ देर पश्चात उसने अपनी गलती स्वीकार करते हुए क्षमा मांगी और कहा "हुज़ूर माफ़ कीजियेगा घर पर बहुत सारे कद्दू हमारे ही खेत के थे सो मैंने आपके उपहार को बाजार जा कर बेच दिया।  मुझसे गलती हुई आपके स्नेह से दिया हुआ उपहार मैंने बेच दिया मुझे माफ़ कर दीजिये "
राजा ने माफ़ करते हुए हुक्म दिया की जाओ जा कर उस सब्ज़ी बेचने वाले को ले कर आओ जिसने उसे खरीदा था। उनके आदेश को मानते हुए तुरंत दो सिपाही उस सब्ज़ी वाले को दरबार में ले कर आ गए। 
"घबराओ मत।  हमे सिर्फ इतना बताओ वह कद्दू किसको बेचा है " राजा ने डर से कापंते हुए सब्ज़ी वाले से पुछा। 
"महाराज उसकी बनावट इतनी सुन्दर थी की अच्छे दाम दे कर कपडे का व्यापारी उसको पूजा के लिए ले गया "
"उस व्यापारी को पेश करा जाये " राजा ने फिर आदेश दिया। 
दरबारी उस व्यापारी को पकड़ कर लाये और उससे भी वही सवाल करा। उसने बताया की उसने गृह शांति के लिए पूजा करवाई थी इसलिए उसने अपने पुजारी को वह दान में दे दिया है। 
"तो ठीक है उस पुजारी को यहाँ हमारे समक्ष आदर समेत लाया जाये "
"अरे महाराज कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है क्यूंकि पुजारी जी तो पहले से ही हमारे बीच में मौजूद हैं। " व्यापारी बोला। 
"अच्छा ! पुजारी जी कृपा हमारे सामने आइये " खुश हो कर महाराज ने आग्रह करा 
तुरंत उनके समक्ष वो बुद्धिजीव आ गया जिसको उन्होंने साधारण कद्दू उपहार में दिया था और जो हमेशा हर बात पर "प्रभु इच्छा" कहता था। 
वो मुस्कारते हुआ बोला "हाँ महाराज दान में मुझे ही इन्होने कद्दू दिया था।  और जब मेरी पत्नी ने पकाने के लिए उसे काटा तो देखा की वो तो हीरे जवाहरात से भरा हुआ था। प्रभु की लीला तो अप्रमपार है " 
राजा की आँखे खुल गयी और वो उस पुजारी के समस्त नतमस्तक हो गए।  दूसरा दरबारी जो राजा को अपना दाता मानता था वो भी उसके चरणों में गिर गया और क्षमा मांगते हुए बोला "मेरी आँखे खुल गयी आज।  प्रभु से बड़ा कोई दानी नहीं है इस पूरे संसार में।  जो जिसके भाग्ये में है उसे कोई छीन नहीं सकता और जो नहीं है वह पा कर भी पा नहीं सकता "
सब उसकी महिमा है।  हम सब आपके सामने नतमतस्तक हैं प्रभु हमे अपने प्रेम से यूँ ही संभाले रखना। 
"जय जय जय हो महा प्रभु की।  सब रब दी मर्ज़ी है। 
बिस्वासी हवै हरि भजय, लोहा कंचन होय
राम भजे अनुराग से, हरख सोक नहि दोय।
जो हरी का नाम पूरी श्रद्धा और आस्था से लेते हैं उनके लिए लोहा भी सोना बन जाता है 
जो राम नाम भजते हैं उनको सुख दुःख सामान लगते हैं। 

~ १९/०८/२०१९~ 
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Friday, August 16, 2019

कृष्णा कथाएं - 2

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कृष्ण, कनहिया, गोविन्द, गोपाल, माधव, देवकीनंदन , यशोदानन्दन , नंदलाल ऐसे ही अनेको नाम से जानने वाले माखन चोर अपने सभी गोपियों के प्रिय थे।  नटखट और चंचल अपनी मधुर मुस्कान से सबका मन मोह लेते थे।  उनकी बाल लीलाएं देखने के लिए गोपियाँ झूठ-मूठ शिकायते ले कर आती थी बस उनकी एक झलक पाने भर से भाव विभोर हो जाती थीं।

अपने बालकाल में अनेकों लीलाएं उन्होंने अपने भक्तों को दिखाई थी।  आज उन्ही में से एक लीला यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।

देवराज इंद्र अपनी ताक़त के गुरूर में चूर होने लगे थे।  वे समझते थे की वर्षा की ताक़त उन्हें सभी देवताओं से अधिक शक्तिशाली बनाती है।

इसी अभिमान में चूर एक बार देवराज इंद्र ब्रज के लोगों से क्रोधित हो गए। उन्होंने देखा की कृष्ण भक्त भक्ति में डूब सिर्फ कृष्ण के कहने पर गोवेर्धन पर्वत को पूजने लगे हैं।  लेकिन पर्वत से ज्यादा शक्तिशाली तो इंद्र खुद हैं। फिर कैसे बृजवासी उन्हें महत्त्व नहीं दे रहे , उनकी पूजा नहीं कर रहे हैं बल्कि गोवेर्धन पर्वत की कर रहे हैं।

क्रोध की अग्नि से जलते हुए बृजवासियों को दण्डित करने का प्रण करा। और बस घनघनाते , उमड़ते घुमड़ते घनघोर बादलों की टुकड़ी को ब्रज भूमि पर भरपूर बरसने का आदेश दे दिया। वे इतना बरसना चाहते थे की लोग घबरा कर उन्हें पूजने लग जाये।  बाढ़ आ जाये और सब खेत खलिहान , घर, चौपाल सब पानी में डूब जाये।

उनके आदेश का पालन करते बादल वृन्दावन के ऊपर एकत्रित हो गए और जम कर बरसने लगे।  इतना बरसे की बाढ़ की स्तिथि उत्पन हो गयी। गांववासियों के घरों में पानी भर गया और वे डूबने लगे। कुछ समझ में ना आने की स्तिथि में सब दौड़ते हुए कृष्ण के पास पहुंचे और उनसे मदद मांगी।

कृष्ण पहले से ही सब जानते थे की इंद्रा देवता क्यों रुष्ट हो गए हैं।  वे ये भी जानते थे की रुष्टता का कारण उनका खुद का घमंड था। इसका उन्हें ज्ञात कराना बेहद आवश्यक था।

"ज़िन्दगी में कभी अपने हुनर पर घमंड मत करना
क्यूंकि जब
पत्थर पानी में गिरता है तब
अपने ही वज़न से डूब जाता है "

कृष्ण ने सब भक्तों की प्रार्थना स्वीकार कर ली और सबको गोवेर्धन पर्वत के नज़दीक बुलवा लिया।  फिर बहुत ही आसानी से अपने बाएं हाथ की छोटी ऊँगली पर पूरे विशाल गोवेर्धन पर्वत को उठा लिया।  और एक बड़ी विशालकाई छतरी सी बना ली।  उस छतरी के नीचे सभी पशु पक्षी व ग्राम वासी सुरक्षित खड़े हो गए।

उनके इस चमत्कार को देख सब भाव विभोर हो गए और सब तरफ कृष्ण की जय जयकार गूंजने लगी।
भगवान कृष्ण की भक्ति और शक्ति देख इंद्र के बादल भी नतमस्तक हो गए और सब एक एक कर वापिस इंद्र लोक चले गए।  इंद्र का भी घमंड चूर चूर हो गया और वे भी कृष्ण की महिमा जान गए।

तो सब प्रेम से बोलो बांके बिहारी लाल की जय !
नन्द लाल की जय !
श्री कृष्ण की जय !

~ १६/०८/२०१९~ 
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Wednesday, August 14, 2019

कृष्ण कथाएं - १




"वर्तमान परिस्थिति में जो तुम्हारा कर्तव्य है, वही तुम्हारा धर्म है।"

कृष्ण सबके चहेते नटखट बाल गोपाल सबके मन को बहुत भाते हैं।  उनकी अनेकों बाल लीलाएं हमारे मन में   छाप छोड़ जाती हैं।  उनके जन्म से ले कर उनकी परम धाम की यात्रा तक सैकड़ों कहानियां सुनी और सुनाई जाती हैं। आज उन्ही की बाल कहानियों में से एक कहानी ले कर आयी हूँ।

गोकुल बहुत ही समृद्ध और खुशहाल गाँव था।  माखन चोर नन्द लाल जो वहां रहते थे।  उनकी एक मुस्कराहट पर सब निहाल हो जाते थे।  गांववासी के साथ साथ वहां के पशु-पक्षी , पेड़ , नदी , पहाड़ सब झूम जाते थे।

"आयो जी नटखट नंदलाला 
गोविंदा ब्रज का बाला "

वही पर यमुना नदी  से जुड़ी हुई एक मीठे पानी की सुंदर झील थी। जिस के पानी से सब अपनी प्यास भुझाते थे। एक दिन ना जाने कहाँ से एक कालिया नाम का बहुत ही जहरीला सांप अपनी पत्नी के साथ वहां आकर रहने लगा। कालिया का जहर यमुना नदी के पानी में बहुत तेजी से घुलने लगा और पानी जहरीला होने लगा था।

एक दिन की बात है, एक गाय चराने वाला वहां आया और जब उसने झील का पानी पिया तो पीते ही वो मुर्षित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई।
पास ही के कुछ चरवाहों ने ये खबर नन्द महाराज को जा कर दी। वही खेल रहे गोविन्द ने जैसे ही सारा वृतांत सुना फ़ौरन नदी तट पर पहुँच गए और अपने प्रताप से उस व्यक्ति को जीवित कर दिया।

तत्पच्ताप,  श्री कृष्ण उस झील में कूद गए। वे पानी के बहुत अंदर तक पहुँच गए गए और उस सांप को जोर-जोर से पुकारने लगे "क्यों निर्दोष लोगो की जान ले रहे हो कालिया।  बाहर निकलो और मेरे साथ युद्ध करो "

उधर बाहर जब बहुत देर तक कृष्ण पानी से नहीं निकले तो गांव के लोग इकट्ठा होकर नदी किनारे उनका इंतजार करने लगे। माता यसोधा का तो रो रो कर बुरा हाल हो गया था।  वे यही सोच कर चिंतित थी की ना जाने इतने विषैले सर्प से कैसे बचेगा उनका लाल।

पानी के अंदर, कालिया सांप कृष्ण के सामने आया और उनपर आक्रमण कर दिया। विशालकाय सर्प ने उन्हें जकड लिया था।  लेकिन कुछ ही देर बाद कृष्ण ने कालिया को जकड़ लिया और उसके सर पर चढ़ गए। कालिया के हजार सिर थे। कृष्ण उसके सर हो सवार हो तेजी से नाचने लगे।  उनके नाचने के कारण कालिया का मुख खून से लथपथ हो गया। यह देखकर कालिया की पत्नी वहां आई और अपने पति के जीवन की भीख मांगने लगी।

नरमदिल कृष्ण ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन दोनों से यमुना नदी की झील छोड़ कर जाने को कहा।

"में जानता हूँ की तुम्हारी रचना एक विषैले जीव के रूप में हुई है।  इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं।  लेकिन अनजाने में तुम्हारा ये विष मेरे गांव वासियों को मृत्यु के नज़दीक ले जा रहा है। इसलिए मेरा निवेदन है की आप यहाँ से रामानका द्वीप चले जाएँ ।"

इतना ही नहीं, कृष्ण ने कालिया को आश्वासन भी दिया कि अब उन पर गरुड़ कभी भी आक्रमण नहीं करेगा क्योंकि उनके नाचने की वजह से, कालिया के सिर पर उनके पैरों के निशान बन गए थे।

यह सुनकर कालिया बहुत ही खुश हुआ।  कालिया और उसकी पत्नी ने प्रभु को नमन करा और यमुना नदी की उस सुंदर झील को छोड़कर चले गया।

पूरा गाँव हर्षो उलाहस से भर गया क्यूंकि कृष्ण ने उन सब की कालिया सांप से रक्षा करी थी।

"मान, अपमान, लाभ-हानि खुश हो जाना या दुखी हो जाना यह सब मन की शरारत है ।"

बोलो बांके बिहारी की जय !


~ १४/०८/२०१९ ~
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Tuesday, January 29, 2019

कहानी गांव की

मूसलाधार  बारिश में मिटटी से उठती सोंधी खुशबू में लिपटी वो कचनार की मासूम सी कली का खिलखिलाकर हसने का अंदाज़। वह एहसास आज भी याद है मुझे।  उन दिनों जब बहुत गर्मी हुआ करती थी  तब गांव की कुछ अलग ही शक्ल हुआ करती थी ।  बिजली तब तक पहुंची नहीं थी गांव तक, सिर्फ बिजली से चलने वाले जादुई  कूलर और पंखो के  किस्से सुने थी , उमेश भैया से, जो शहर में किसी कपड़ों  की फैक्ट्री में काम करते थे।   वहां मशीने थी जो बिजली से  चलती थीं। खैर उमेश भैया के पास तो उनकी और शहर की अनेकों कहानियां थी। अभी वो बताने बैठे तो रात यहीं बीत जाएगी ।

गर्मी से बचने के लिए गांव में बर्फ का गोला वाला बर्फ  बेचने आया करता था। दूर से ही मंदिर की  घंटी वाली गाडी की टन~  टन ~ टन ~ आवाज़ आ जाती थी और हम सब बच्चे लपक कर बर्फ वाले की गाडी को यूँ घेर लेते थे मानो किसी जलेबी के गिरे हुए टुकड़े पर सैकड़ों चीटियों की फौज चढ़ गयी हो। हम उसकी गाडी पर लगी चकरी घुमाते  थे और चकरी पर लगी सुई जिस नंबर पर रूकती हमे उतने पैसे की बर्फ मिल जाती थी   १० पैसे में  कभी कभी हमे १ रुपए  वाली भी मिल  जाती थी।

वो दिन आज भी याद आते हैं क्यूंकि अब वो बात कहाँ जो तब  गर्मी में हाथ का पंखा झलने और मटकी का ठंडा पानी पीने में था।  पूरी दुपहरी नीम आम के पेड़ के नीचे बैठ बच्चे  बुड्ढे और जवान सभी अपना समय व्यतीत करते थे. गांव की बात ही कुछ और थी। वो पेड़ की डाल का झूला , भरी दुपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे का खेल। कोयल की कूहक कानो में मिश्री सी घोल जाती थी. माँ के दुलार के बीच पड़ोस वाली कमला चाची की मटकी कुएं से उठा में और भाई झट से देहडी पर रख मैदान की ओर दौड़ जाते थे।

 गर्मी लगने का न डर  होता था न बारिश में  भीगने  का , बल्कि हमे तो माँ बाहर भगा देती थी जब भी बारिश होती थी। कमला चाची , मुन्नी काकी , पिंकी की दादी हमे पानी में भीगने को मना करते थे वहीँ माँ हमे  कागज़ की नाव बना कर हमारे साथ खुद भी बच्ची बन जाती थी।  मैंने कई बार देखा था माँ को ,ना जाने क्यों, खेलते खेलते अपनी पल्लू से आँखों की कोर पोछती रहती थी।  शायद उन्हें हमारी वो बहन याद आती थी जो पैदा होते ही मर गयी थी , ऐसा दादी कहती थी और ये कहते उनकी आँखों में भी मोती झलक जाते थे।

पिताजी तो हमेशा अपनी मूछ पे ताव देते वर्जिश करते थे।  फिर कड़क धोती कुरता पहन खेत का मुआयना करने निकल जाते थे।  "कल्लू , इस बार लगता है फसल अच्छी होगी।  रब की मेहर है , बारिश सही  वक़्त पर आ गयी।  और बीज भी अच्छे डाले थे।  धयान रखना कोई रात में बदमाशी न करे हमारे खेत से " रोबीली आवाज़ में सब को काम समझते वो भी चौपाल चले जाते।  वहीँ हुक्का गुड़गुड़ाते कुछ देर गांव के बच्चो को पढ़ाते और रोटी खाने घर आ जाते थे।  फिर मेरे और भाई के कान खींचे जाते क्यूंकि आज भी हम उनकी पाठशाला में जो नहीं गए थे।

उनके समझने का हमपर कोई असर नहीं होता था और दादी भी हमे लाड से अपनी गोद में छुपा लेती थी।  फिर एक दिन माँ ने कुछ ऐसा कहा की हमारी बुद्धि खुली , जैसे  बिजली का झटका लगा दिया हो , ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमने ना जाने कितना कीमती वक़्त बर्बाद कर  दिया हो। माँ कल्लू से कह रही थी "अबकी बार जब बीज की बुआई करो तब मेरे दोनों गोपालों को भी ले जाना कुछ  काम करवाना।    ये भी अब से तुम्हारा हाथ बटाएँगे
पढाई लिखायी में तो मन लगता नहीं।  उमेश को देखो दो अक्षर पढ़ लिया तो शहर के  एक कारखाने में वो क्या कहते हैं मैनेजर - हाँ  मनेजर बन गया है।  पैसा तो अच्छा मिलता ही है , रुतबा है सो अलग।  सुना है रोज़ सुबह उसे सब सलाम करते हैं।  अब हमारे पूरब और प्रकाश की ज़िन्दगी तो  यहीं गिल्ली डंडा खेलने और खेत जोतने में ही  जाएगी।  पिताजी के सामने जाएँ , कुछ समझदारी की बात जाने तब तो कुछ अक्ल खुले ।  बस मेरा पल्लू पकड़ छुपे रहते हैं।  इनके बापू कह रहे थे की अब से इनका खेलना कूदना बंद बस अब खेती ही करेंगे। "

मेरे तो जैसे सब ख्वाब टूट गए - कितना सोचा था की अबकी बार कागज़ की नाव  प्रतियोगिता रखेंगे , दूर आसमान में पतंग उड़ाएंगे और सब दोस्तों के साथ बस पूरे दिन आम अमरुद के पेड़ पर कृष्ण कनहैया बन आराम फरमाएंगे।  "भैया.... भैया सुना आपने पिताजी का फरमान की कल से खेत में काम करना है हमे।  "
"हाँ सुना, प्रकाश , मुझे भी समझ नहीं आ रहा की क्या करा जाये। चल माँ से बात करके देखते हैं शायद कुछ सुझाव हो उनके पास "

और हम दोनों डरते सहमते  माँ के पास पहुंचे।  में  उनका सर दबाने लगा और भैया उनका पैर।  "माँ आज बहुत थकी हुई लग रही हो आओ हम आपको थोड़ा आराम दे दें " पूरब भैया धीमे से बोले ।

गुस्से में माँ ने हाथ झिटक दिया "जाओ यहाँ से - में तुम्हारी चापलूसी सब  समझती हूँ।  एक ना सुनूँगी तुम्हारी, तुम्हारे पिता सही कहते हैं तुम दोनों के लिए बस खेत ही ठीक है "

मेरी आँखों में आंसूं आ गए।  तभी दादी वहां आयी और मुझे गोद में छुपा लिया बोली "देखो बच्चों मेरे पास एक उपाय है तुम्हारे लिए।  अगर पढ़ने का मन बनाया तो बस थोड़ी देर की पढाई और उसके बाद खूब मस्ती करने को मिलेगी।  बोलो मंज़ूर है तो में  तुम्हारे पिता से बात करती हूँ।  नहीं तो कल से कल्लू संग लग जाना खेत जोतने।  "

मैंने कुछ सोचते हुए भैया की तरफ देखा भैया को  भी ये सुझाव पसंद आ रहा था। हम दोनों ने अपनी गर्दन झट से हां  में हिला दी।  और  जैसे जादू हो गया माँ ने लपक कर मुझे और भैया को अपने आँचल से संवारा और झट से हलवा ले आयी। हम दोनों को गले लगाया और फिर बस आँखों से गंगा जमुना बहाने लगी।
"अरे अरे माँ। . क्या करती हो अब ऐसा  क्या कह दिया हमने की आज आपको छुटकी की याद फिर आ गयी. उसे याद कर रोया मत करो। " मैंने माँ के आँसू पोंछते हुआ कहा

तब माँ दादी की ओर देखते हुए उनका कुछ इशारा पा हम दोनों को अपने समीप बिठा बोली "बच्चों आज मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू हैं की तुम दोनों पढ़ने को राज़ी हो गए हो। क्यूंकि में जानती हूँ की यदि गांव वाले पढ़े लिखे होते तो  उस दिन हमे रोका नहीं होता।   तो शायद आज हमारे बीच तुम्हारी छुटकी भी होती।  दादी ने भी हाँ में हाँ मिलायी।
दादी आगे बोली "जिस दिन छुटकी पैदा हुई थी उस दिन चंद्र ग्रहण पड़ा था और खूब बारिश भी हुई थी।  छुटकी पैदा होते ही बीमार हो गयी थी यहाँ पर दायी ने कहा की शहर का डाक्टर ही बचा सकता है उसे।  लेकिन अनपढ़ और अंधविश्वासी  गांव वाले अड़ गए की ग्रहण में कोई बहार नहीं निकलेगा।  फिर भी तुम्हारे पिताजी ने किसी तरह सबको समझा कर बैल गाड़ी निकल ही ली लेकिन उसका पहिया कीचड़  में धंस गया और निकलने को तैयार नहीं हुआ , उस वक़्त कोई भी मदत को आगे नहीं बड़ा । शहर तो बहुत दूर है यहाँ से। पैदल जाते भी तो पूरा दिन लग जाता वहां के हस्पताल पहुँचने में। "
माँ रुंधे गले से आगे बोली "बस गांव वालों की अनपढ़ मानसिकता और पक्का अच्छे रास्ते के आभाव ने हमसे  हमारी नन्ही छुटकी ले ली "

मुझे इतना गुस्सा आया उस दिन की बस मैंने  ठान लिया की में खूब पढाई करूँगा और अपने गांव के सभी लोगो को भी शिक्षित करूँगा।

हमे उस दिन माँ की  ख़ुशी भरे आँसू   समझ नहीं आये थे , लेकिन  आज सब आता है समझ ।  उस दिन जो पढाई का कीड़ा हाँ कीड़ा ही कहेंगे , जो  डाला था - वही आज हमे इस तरक्की की डगर पर ले आया है।  भैया आज एक कलेक्टर बन गए हैं उन्हें सरकार ने  बड़ा घर दिया है।  अब वो वहीँ भाभी और प्यारी पिंकी के साथ रहते हैं। उन्होंने जी जान लगा कर गांव से शहर तक की एक सड़क बनवा दी है। अब शहर जाना काफी आसान हो गया है।

और में अपने गांव से कुछ ज्यादा ही जुडा रहा इसीलिए में अपनी पढाई को खेत में ले आया।  अब में यहाँ ट्रेक्टर , टूबवेल आधुनिक तरीके से फसल करवाता हूँ।  जी हाँ करवाता हूँ , हमारे खेत पर  ५० लोग काम करते हैं।  और में अपने  एक छोटे  से  हस्पताल  में बीमारियों का इलाज़ करता हूँ ।  अपनी प्रैक्टिस अपनों के बीच रह कर करता हूँ । आखिर उस दिन पढाई  के कीड़े ने मुझे एक डॉक्टर जो बना दिया।  और अब मेरी यही कोशिश रहती है की कोई भी छुटकी डॉक्टर या दवाई के आभाव में अपना दम न तोड़े।

 माँ की आँखों  में ख़ुशी झूम जाती है जब भी मुझे गांव में बच्चे के साथ ही बड़े भी सलाम करते  हैं।  इज्जत से डाक्टर बाबू  साहब पुकारते हैं।

गांव के छोटे से स्कूल में पिताजी बच्चों को पड़ाने के साथ ही छोटी छोटी रंगीन कहानियां भी  सुनाते  हैं।  और कभी -कभी में भी  बच्चा बन उनकी  कहानियों की हसीं दुनिया में खो फिर से बच्चा बन  जाता हूँ।

उस टूटे कुल्हड़ में चाय और बासी रोटी
आम की डाल पर झूलती उसकी अल्हड़ चोटी
मेहंदी की खुशबु से महकती हथेली गोरी
माँ की वो मीठी सी लोरी
कानो में गूंजती आज भी है
बरगद के नीचे वो दोस्तों की महफ़िल
सूखी रेत सी हाथ से गयी फिसल
बेफिक्र चहकते मस्ताते कदम
बेख़ौफ़ खेलते दौड़ते हुए बेदम
वो हसरतें आज भी मचल जाती हैं
टूटी पुलिया पर साईकल चलाना
मैदान में यूँ पतंग उड़ाना
पोखर में छलाँगें लगाना
रेतीली पहाड़ी पे लोटपोट होना
दिल में टीस आज भी छोड़ जाती हैं
बाग में मस्त हो आम तोडना
पंछी के साथ उड़ने को मचलना
पाठशाला में इतराते बस्ता ले जाना
पेड़ के नीचे गहरी नींद सो जाना
उस ख्वाब में मुस्कराहट आज भी जीती है
~ ०१/०१/२०१५~
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Monday, January 28, 2019

हिन्दुस्तान



क्या हिन्दू क्या मुसलमान
ये देश हमारा है मेरी जान
कुछ सौदागरों की राजनीति में
क्या भूल जाएँ अपना ईमान
माटी से मोह्हबत की
जलती आग है हर सीने में
क्या मेरा क्या तेरा
हर दिल में है बस्ता
हिन्दुस्तान

~ २६/०१/२०१९~

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Sunday, January 27, 2019

उडान



ऐ दिल ज़रा सीख
पंख अपने खोलना
अभी तो पहला टुकडा
दिखा है आसमान का
पूरा गगन करे हेे इंतज़ार
हमारी उँची उडान का


~27/02/2019~

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Wednesday, January 16, 2019

में



कुछ धुंदली सी यादों के बीच
सिमटा हूँ में
आईना  साफ़ करूँ या नज़रिया
यही सोचता हूँ में
चेहरे पे मुखौटे तो बहुत हैं
परत दर परत उतारता हूँ में


जिस्म से रूह तक का ये सफर
समझ लेता हूँ में
आईने में खुद को देख
कुछ सोच लेता हूँ में
दूर क्षितिज पे फैला है उजाला
वही परखने चला हूँ में।

~ १५/०१/२०१९~

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