एक शाम झूले पे बैठ
चाय की चुस्कियों के बीच
मन ने विचार करा
खाना क्या बनाया जाये
क्या पकाया जाये
और टेबल पर परोसा जाए
दिमाग के सफ़ेद काले घोड़े
हर कोने में थे दौड़ाए
खोल पिटारा उम्मीदों का
व्यंजन कई ढूंढ निकाले
अब आयी बारी पकाने की
बस खयाली कढ़ाई निकाली
कुछ सपनो सी खिली
रँगीन सब्ज़ियां टटोली
तेज़ धार कर कलम की
छोटे छोटे टुकड़ों में
काटी बड़ी करीने से
ढून्ढ रही मन की बगिया में
हरियाली ख्वाबों से
कुछ पत्ते धनिया और पुदीना के
आज सजाऊंगी उनसे ही
सुन्दर रूप उनका बनाऊँगी
अतीत की अलमारी में
धूमिल पड़े थे कुछ मसाले
उन्हें भी निकाल बाहर
मिला दिए सब्ज़ी में
स्वाद कुछ तो निखरेगा
ऐसा मैंने सोचा था
फिर प्यार की चला करछी
नरम आंच पे थी सेंकी
गर्म गर्म बादल सा धुआं
उड़ रहा, उसमे से था
सौंधी खुशबु से महकी पूरी रसोई
अब बारी थी सपनो की
सजीली तश्तरी निकालने की
ओढ़ चुनरिया लाज की
पीछे कोने में वो बैठी थी
हाथ बढ़ा, बड़े जतन से
खींच ही लिया उसे सामने
शब्दों की मसालेदार सब्ज़ी
हो गयी थी अब तैयार
रंगीले सपनो में सजी
चटपटे मसालों से भरी
परोसी गयी थी सबके सामने
व्यंजन वाकई बेमिसाल था
क्यों न होता भला, आखिर
शब्दों का मिश्रण था
रंग और प्रेम से भरपूर था
स्नेहिल माँ के लाड सा
ऐसा उसका स्वाद था
-12/06/2020-