Thursday, May 21, 2020

लघु कहानी 'काली रात'


धुंध में सिहरती उस काली रात का आलिंगन करे वो वहीँ सड़क पर पड़ी अकेली सिसकती रही। भेड़ियों की कहाँ कमी है इस जहाँ में। सुना था कभी की भेड़िये जंगल में रहते है लेकिन ये तो बहुत बाद में जान पायी की नज़र उठा कर देखो तो अक्ल पर जमी ग़लतफ़हमी की परत ही है । असल में श..श.. इंसानी भीड़ में सबसे अधिक भेड़िये पाये जाते हैं।

इनकी कोई नस्ल नहीं होती बस ये गंध पा शिकार पर शिकार करते है। शिकार फिर चाहे उनके अपने ही घर में क्यों ना हो। इनके पास कोई अंतर्मन नहीं होता। ये तो वो नस्ल है जो खुद अपने बच्चो तक को खा जाती है।

फिर वो तो एक कोमल मन की अबोध बच्ची है। वो कैसे बच पाती, कैसे गुहार करती और किससे करती। कहने को सब अपने हैं लेकिन फिर भी कोई भी तो नहीं है अपना। मासूम देह की गंध पा भेड़ियों की भीड़ जमा हो ही जाती थी। फिर भी एक कोने से बुझी हुई उम्मीद की किरण उसकी रक्षा करने में कामयाब होती रही। और फिर .... फिर वो किरण किन्ही अंधेरों में विलुप्त हो गयी । छोड़ गयी उसे अकेला इस भेड़िये की भीड़ में। कब तक छुपाऐ रखती अपने आप को। ज्यादा समझ भी तो नहीं थी। भगवान् ने बुद्धि की जगह खाली कर दी थी उसकी।

आज भेड़िये चचा ने बड़ी मनमोहक परियों वाली कहानी सुनाई थी। रंगीन और जादुई दुनियां में मीठे फल और सतरंगी फूल थे। पेड़ पर महकते झूले और चमकते रास्ते थे। कितनी सुन्दर सजीली मनमोहक दुनिया थी। यहाँ सिर्फ सुन्दर रंग ही रंग थे। कहीं भी कोई छोटा सा भी कीड़ा नहीं दिखा। बस वो बह गयी इस छलावे में इसी को सच समझने की भूल कर बैठी। अब निशब्द पड़ी है। अपने रिस्ते ज़ख्मों से मवाद को उफनते देख रही है। शून्ये को ताक रही है। इस काली रात्रि की तरह ही उसके अंदर भी सिर्फ कालिख ही कालिख भर गयी है।

क्या कभी भोर होगी?क्या कभी कोई किरण उसको छु भी पायेगी? या ये काली रात उसको आज ही निगल आज़ाद कर देगी? कौन जाने?

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घोंसले

ना जाने क्युँ 
नज़र मेंरी हटती नहीं
सामने कचनार के पेड़ पर 
बने उस चिर्रया के घोंसले से
नन्हें पंक्षी पंख पसार उड़ने को हैं तैयार
आया वक्त घोंसले का वीरान हो जाने का
क्यों घोसले वीरान हो जाते है
क्यों सपने सब उड़ जाते हैं
हमारी खुशियां तो बस्ती उन्ही में है
क्यों हम इतने परेशां हो जाते है
चिरैयों को तो दुःख नहीं होता
वो तो स्वछंद आसमान को नापती जाती है
हमे भी सीख लेनी चाहिए इनसे
हमे भी पंख खोल खुले आसमान
में उड़ जाना चाहिए
मुस्कराते हुए

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Friday, May 8, 2020

आम का वो पेड़


तुम्हारे अहाते के
उस आम के पेड़ का
पीला पड़ा पत्ता
उड़ आया था मेरे खेत में
निर्मोही पुरवैया के साथ
उठा हाथ में जो रखा
दिला दी उसने वो सारी बीती बात

माँ के बखान ने 
कैसा मचाया बवाल 
दौड़ भाग आ गया था कोठी 
जानने तुम्हारा हाल
नन्है हाथ और नन्है पैर 
हो गया था बावरा में
देख के तुम्हारे नन्है नैन
ठाना था तभी मन में
तुम्ही हो मेरी जीवन संगिनी

कितना बना मज़ाक था में
अभी से क्या सोचना इतना
बड़ी तो इसे हो जाने दे
ऐसा कह टॉल दिया
रखा नहीं मेरा मान
मेरी बात हंसी में उड़ा
ठेस पहुंचाई थी मुझे
तुम तो बस गयी थी मुझमे
उसी पल से रग रग में

पायल की झंकार
गूंजाती मेरा मन
छन छन करती तुम 
आ गयी जीवन में
तोतली जुबां में मुझे पुकारना
कर देता मुझे बेहाल
तब सोचा था 
पछाड़ दूँगा में अपना काल

धीरे धीरे बड़े हुए
सुर और ताल मिलते रहे
उंच नीच का किसे था ज्ञान
हम दोनों तो थे बालक अंजान
नन्है कदमो से जब
सीखा तुमने चढ़ जाना पेड़
उसी की डाल पर बैठ
बुन डाले कितने सपने

मीठे आम और तुम्हारी हंसी
तीर सी घायल करती थी 
हमे क्या पता था की
वो तो बस ठिठोली थी
झूला झूल उसकी छांव में
हँसते और खिलखिलाते थे
कहाँ बीता वक़्त तब
इसका न था कोई भान

चौदह की तुम हो चली थीं
मेरे मन में पूरी बस चुकी थीं
चाहत चढ़ी परवान
जल्दी थी तब मुझे
करने को कोई नौकरी
आखिर ब्याह कर लाना था
तुमको अपनी ड्योढ़ी

ठाकुर साहब को जैसे 
खलने लगी हमारी जोड़ी
लगा दी थी हम दोनों पर
पैनी नज़र की लगाम
इस सब में हम भूल गए
स्वछंद खेलना और 
तोड़ खाना वो मीठे आम
भूल दुनिया का मेला
खो गए थे एक दूजे में

ठाकुरजी ने 
उसी पेड़ की ठंडी छांव
में किया तुम्हारा हाथ 
चौधरी के नाम
कैसी मौन चीखी थी तुम
में खड़ा रहा देखता 
चुप
क्या कहता?कैसे कहता?
करता जो नहीं था कुछ काम

दो दिन भी नहीं बीते थे
उस पेड़ के आम भी नहीं 
पके थे
क्यों मूंदी तुमने आँख
क्यों छोड दिया मेरा साथ
मेरा कुछ तो करती 
इंतज़ार
शायद में आ ही जाता

वहीँ छाव में उस पेड़ की
तुम निश्छल सो गयी 
और वहीँ सिमट कर रह गईं
उस मिटटी में 
शीतलता से मिल गयीं
देखा था एक अंकुर 
फूटते हुए इक दिन
क्या आ रही हो लौट कर
मेरे लिए हे प्रिय

जब जब हवा है चलती
उसी आम के पेड़ से गुज़रती
तोड़ लाती तब मेरे लिए
एक एक उसका सूखा पत्ता 
पत्ते पे हो सवार आ जाती
उसकी खुशबू से नहाई
उसकी सारी बातें
वो सारी चुराई रांतें
और साथ बिताई वो
खट्टी मीठी यादें।

तुम
चली गईं
छोड़ मुझे अकेला
अब बेरंग सा लागे
ये दुनिया का मेला
तुम तो लौट कर ना आयीं
बस तुम्हारी खुश्बू में लिपटी 
वो आम की सूखी पत्ती
ही है अब मेरे जीवन का सहारा ।




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Thursday, May 7, 2020

खुद पर काम करो




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बारिश


रात भर प्यासी धरती को 
तृप्त
करती रही प्रेम की बारिश
देखो, देखो ना अब कैसी 
निखर
गई है नहा कर उसी प्रेम में !


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मेरी खिड़की और तुम

उस दिन देखा था तुम्हे जल्दी जल्दी नुक्कड़ तक दौड़ते हुए
सुनने में आया था कोई लाश पड़ी थी
उघड़ी हुई , उजड़ी हुई खून में लथपथ
तुम्ही थे जो झट से ढांक दिया था उसे
फ़ोन घुमा एम्बुलेंस और पुलिस को बुलाया था
उस दिन तुम्हारी आँखों में गहन पीड़ा थी
जैसे वो कोई तुम्हारी अपनी हो
लेकिन
वो तो कोई नहीं थी तुम्हारी
फिर तुम क्यों रोए थे उसके लिए ?
.
.
फिर से हुई थी हमारी मुलाक़ात
उमस भरी दुपहरी में
भीड़ से भरी बस में
तुम सौदा पकडे एक कोने में टिके बैठे थे
तुमसे उस वृद्ध के झुकते कंधे देखे नहीं गए
झट अपना कोना छोड़
हाथ पकड़ प्रेम से बिठाया था
अपनी बोतल से पानी भी पिलाया था
और फिर एक मीठी लोक धुन छेड़
सब यात्रियों का मन बहलाया था
कोई भी तो नहीं था वहां तुम्हारा अपना
फिर तुम्हारे गानों में इतनी मिठास कैसे थी?
.
.

ठीठुर्ती दिसम्बर की वो काली रात
याद है मुझे वह भी
कैसे तुमने प्यार से
उस सड़क पर ठण्ड से तड़पते
कुत्ते के पास आग जला
गर्म दूध पिलाया था
साथ में अपना कम्बल भी उसे उढ़ाया था
उसने जब कृतघ्नता से
तुम्हारा हाथ चाटा
तब कैसी भीनी मुस्कान चमकी थी आँखों में
वो भी तो तुम्हारा कोई नहीं था ना?
.
.
जब उस मासूम कली को
कुचला था ज़माने ने
उसकी निश्छल हँसी को
छीना था किस्मत ने
रंगीन रेशमी वस्त्र का कर बलिदान
सूती सफेद चादर को अपनाया था
वहशी आंखे छेद गयी थी
तब उसका अंतर्मन
तब उसका हाथ थाम
सूनी मांग सजा
बढ़ाया था उसका सम्मान
तब गर्व से क्यों नहीं खड़े थे अपना सीना तान?
.
.
क्या अब भी ऐसा होता है
कौन हो तुम
आकाश से उतरे देवता हो
या हो कोई जीता सपना
खिड़की से हर रोज़ अपनी
देखा था तुम्हारा हर काम
ऐसे प्राणी भी होते है
मैंने तो सिर्फ दरिंदे देखे अब तलक
इस मतलबी दुनिया की भीड़ में
सिर्फ तुम ही एक
इंसान दिखे हो ।

~07/05/2020~


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