Tuesday, June 15, 2021

अलविदा

घुंघरू से खनकते होंगे बोल
चट्टान से फौलादी होंगे वचन
मां के आंसुओं का ना था वजूद
बागीचे मे तब खिलते थे गुलाब 
कैक्टस का ना था हिसाब

कितना कुछ समेट रखा था 
ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
बोली भी नहीं पाई थी सीख
क्या मांग नहीं सकते थे 
जीवन की अपने भीख?

जाना तय ही था, तो 
मां के आंसू भी ले जाते
हमारे सारे सपने भी ले जाते
यह जो टीस है ना दिल में मेरे
वो भुलाए नहीं भूल पाती में

ओ बाबू, क्यूं चले गए तुम
अलविदा हम कह ही ना पाए
ना ही कभी कह पाएंगे
स्नेह भरा हाथ तुम्हारा
सदा सर पर ही पाएंगे।
15/06/2021
©Deeप्ती

Tuesday, June 8, 2021

सुनसान घर


सं १९३०

कभी उस आंगन में ढेरों किलकारियां गूंजा करती थी। कितना गर्व था हरिप्रसाद को अपने पूरे परिवार को हंसते खेलते देख कर।

हरिप्रसाद, एक छोटे से गांव सोंक से शहर आए थे। दिन में छोटे मोटे काम कर लेते थे, शाम को सड़क की बत्ती के नीचे ही अपना बिस्तर जमा लेते, फिर शुरू होता उनका पढ़ाई का कार्यक्रम। वो पूरी लगन से पढ़ाई करते थे। 

उस ज़माने में खुद पढ़ाई करना और इम्तिहान में बैठ जाना, आम था। वक्त बीतता गया और वो पूरी लगन और निष्ठा के साथ दोनों काम बखूबी करते रहे। अपने महनत से उन्होंने दांतों की डाक्टरी पूरी करी।
वहीं बाज़ार में छोटी सी क्लीनिक खोल ली। 

पैसे इकट्ठे कर के जुगाड़ लगाई और एक आलीशान कुर्सी भी खरीदी। जो ऊपर नीचे हो जाती थी, जिसपर मरीज़, बैठ अपने दांत दिखाते थे। वे बड़ी लगन से सब मरीजों का इलाज बखूबी करते रहे। जल्द ही वो अपने शहर के जाने माने दंत चिकित्सक माने जाने लगे।

इस बीच उनकी शादी ,बैकुंठी, से हो गई थी। जो सुंदर ही नहीं बल्कि ग्रह कार्य में निपुण भी थी। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी परन्तु , डाक्टर साहब के साथ रह कर उनसे काफी कुछ पढ़ना सीख गई थी। घर में दो नन्हे पुत्रों की किलकारियां गूंजने लगी थी। इस बार बड़ी आस थी कि पुत्री आ जाए। और हुआ भी ऐसा ही, उनकी गोद में नन्ही परी आ गई।

वक्त गुजरता रहा। डाक्टर साहब को, अपना कोई परिवार याद ना था, इसलिए वो खूब बड़े परिवार की कामना करते थे। उनका घर आंगन अब तीन लड़के और पांच लड़कियों से भर गया था। 

अहा , कितना मधुर संगीत सा प्रतीत होता था, उनका आंगन। घर में घुसते ही जो मधुरम किलकारियां सुनाई देती, तो उनका रोम रोम पुलकित हो जाता। जो कमी उन्होंने बचपन में महसूस करी थी - अकेलेपन की, वो अब पूरी हो गई थी।

घर आंगन गूंजित था
नन्ही बोलियों से
हर कोना जग मग था
बच्चों की मुस्कान से

उनका सीना फूल ना समाता, जब वे घर पहुंचते और सब बच्चे उन्हें चारों ओर से जकड़ लेते, कहते " बाबूजी, बाबूजी - आज क्या लाए हो हमारे लिए?" फिर वो चुपके से जलेबी की पुड़िया अपनी लाड़ली बैकुंठी को थमा देते। "जा बच्चों में बांट दे"

छोटी छोटी खुशियों से भर गया था घर संसार उनका। वक्त का पहिया अपनी गति से बहता रहा। और धीरे धीरे घोंसला छोड़ उनके पंख पसारने का वक्त आया। एक के बाद एक, सब पंछी उड़ गए अपने अपने टुकड़े के आसमान को ढूंढ़ने। 

आंगन सूना हो गया। वो अपनी बैकुंठी के साथ अकेले रह गए। दस कमरों का विशाल घर अब काटने को दौड़ता था। हर कोना अंधकार की गलियों में खो गया था। बागीचे का वो आम का पेड़ अपनी बाहें और फैला रहा था, मानो दूर उड़ते बच्चों को समेटना चाह रहा हो। उसकी बाहें भी अब बेजान सी इंतजार करती है, कभी तो फिर यह आंगन महकेगा। उसके आम का रस फिर मिठास घोलेगा।

हरिप्रसाद, नितांत अकेले उस आम के सहारे जीवन बसर करते बांट जोतते रहते है। बैकुंठी भी तो ना रही अब। उनका आंगन बेहद सूना हो गया। 

डाकिया आता था उनके साथ वक्त गुजरने, कभी कभी। आज हरिप्रसाद का मन बेचैन था । डाकिए ने आवाज़ दी तो हरिप्रसाद अनायास ही बोल पड़े
"अब यहां कोई नहीं रहता।"

********

सफेद रूह


रूही किन्हीं खयालों में खोई चली जा रही थी। आज मीना जो उसकी सहेली है उसने बड़ी ही विचित्र बात बताई। क्या ऐसा सच मे हो सकता है भला?? 

*********कुछ देर पहले*******

मीना :- रूही पता है कल मेरे बाबूजी रेल से वापिस घर आ रहे थे। चंदन घाटी से रेल गुजरने वाली थी। वहीं चंदन घाटी जहां प्रेत आत्माएं बस्ती है" 

रूही :- " प्रेत आत्माएं...??? वो क्या सच में होती है..? हुंह में नहीं मानती। ऐसा भी कभी कुछ होता है भला। आत्मा सिर्फ आत्मा होती है। प्रेत व्रेत कुछ नहीं होता।"

मीना :- होता है रूही, ज़रूर होता है। अब तेरे मानने ना मानने से थोड़े ही कुछ होता है। मेरी पूरी बात तो सुन ना। फिर तय करना क्या सही है क्या झूठ। ठीक है..??

रूही ने अपनी गर्दन हां में हिलाई तो मीना ने आगे कहा।

" हां तो ट्रेन चंदन घाटी के पास पहुंचने वाली थी। सभी यात्रियों ने अपनी अपनी खिड़की बंद कर ली थी। तू तो जानती है मेरे पिताजी इन सब में विश्वास नहीं करते, सो उन्होंने अपनी खिड़की बंद नहीं करी। वो अपनी किताब पड़ने में मशगूल थे। तभी ट्रेन घाटी की सुरंग से गुजरने लगी। पल भर में ही ट्रेन में अंधेरा छा गया।"

"अंधेरा कैसे छा गया..? जब ट्रेन सुरंग में जाती है तो ट्रेन की सभी बत्तियां जल जाती है ना.. कुछ भी बोलती है मुझे डराने के लिए" रूही ने तुरंत मीना को टोक दिया।

" हां .. वही तो। मैने भी बिल्कुल यही कहा था जब पिताजी ने यह किस्सा सुनाया था। तब उन्होंने बताया की सभी परेशान थे कि बत्ती अपने आप जली क्यूं नहीं.. की अचानक, एक ज़ोर का झटका लगा, एक दो पल के लिए सभी अस्त व्यस्त हो गया था। अंधेरा था तो कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा था। फिर दो चार पल बाद ट्रेन सुरंग से बाहर आ गई। ट्रेन की गति धीमी हो गई थी और धीरे से चिं.... चीं... करती वो रुक गई।"

"क्यूं रुक गई..? तुम तो बता रही थीं कि सभी डरते थे उस इलाके से .. फिर ट्रेन क्यूं रोक दी ड्राइवर ने..?"

" यही जानने के लिए कुछ यात्री उतरने लगे..इतने में पिताजी की नजर अपनी किताब पर गई जो वो पढ़ रहे थे.. वो गायब हो गई थी।"
" हुंह झटके की वजह से गिर गई होगी, सीट के नीचे चली गई होगी"

"अरे सुन तो बाबा। ऐसा ही पिताजी ने भी सोचा , तो वो इधर उधर नजर घुमाने लगे - सीट के नीचे देखा, पीछे देखा, यहां तक कि खिड़की के बाहर भी देखा। की कहीं झटके से उछल कर बाहर तो नहीं गिर गई। वो गायब हो गई थी... गायब... सच्ची"

"हुंह तो क्या हुआ एक किताब ही तो थी, गिर गई होगी। किसी के समान के नीचे फंस गई होगी। इसमें इतना घबराने की क्या बात है..?" 

" बात है। तभी तो बता रही हूं। हां तो जो यात्री उतर गए थे ट्रेन के रुकने का कारण जानने के लिए। वे इंजन तक पहुंच गए। ड्राइवर भी नीचे उतर चुका था और कुछ विस्मय से पटरी को देख रहा था।

वहां पहुंच कर लोगों ने पूछा क्या हुआ.. ट्रेन क्यूं रोक दी?? तब ड्राइवर ने पटरी पर इशारा करा। तब तक पिताजी भी वहां पहुंच चुके थे, उन्होंने देखा कि पटरी पर थोड़ा राल रंग पड़ा है और इस पर कुछ कागज फड़फड़ा रहे हैं। पास जा कर देखा तो वो कोई लाल रंग नहीं था बल्कि ताज़ा खून था। हां सच्ची। खून की महक होती है ना तो उसी से पहचाना।"

" कोई जानवर कट गया होगा ट्रेन से..? बेचारा.. च.. च.. च.." 

"अरे नहीं। ट्रेन तो पहले ही रुक गई थी कटता कैसे। कोई जानवर भी नहीं था वहां। ड्राइवर ने बताया कि उसने किसी को पटरी पर सोते देखा था दूर से, सो उसने ट्रेन को रोक दिया। लेकिन जब उतर कर देखा तो कोई नहीं था बस खून था और पास में एक किताब थी।

जानती हो वो किताब कौनसी थी?? वहीं जो पिताजी पढ़ रहे थे" मीना ने अपनी आंखे बड़ी करते हुए आखिरी बात बताई।

"वहीं किताब थी..? सच्ची..??" अब रूही की रूह कांपने लगी। 

"चल रूही अब मैं घर जाती हूं। पिताजी को अच्छा नहीं लग रहा है, जब से लौटे हैं बहकी बहकी बातें करने लगे है। डाक्टर बाबू को बुलाने जा रही थी में। अंधेरा होने से पहले घर पहुंचना है मुझे तो।" मीना तेज़ी से साइकिल को पेडल मार दवाखाने की ओर चली गई।

रूही की जान हलक मे आ गई थी। "मीना फिर कोई कहानी तो नहीं बना रही? मीना को आदत है किस्से कहानी गड़ने की। वैसे भी बड़ी जीवंत कहानियां सुनाती है.." घबराती हुई रूही अपने घर की ओर चल दी। उसका घर वैसे भी उस विशाल पीपल के पास से गुजरता है, जहां सुना है की प्रेत आत्माएं रहती है। 

वो कदम जल्दी जल्दी बढ़ाने लगी। तभी अचानक तेज हवा सर्र सर्रर... करती चलने लगी। वातावरण में अजीब अजीब आवाजें थी साथ में भयानक खामोशी भी। रूही को लगा मानो कोई उसके पीछे है। वह अपनी गति और तेज करती है, ऊपर बादल भी छा गए थे।

अचानक उसकी नजर दूर से एक सफेद आकृति पर गई जो तेज़ी से उसकी ओर आ रही थी। उसने भागना चाहा लेकिन कदम साथ ही नहीं दे रहे थे। चीखना चाहा, लेकिन आवाज़ हलक में अटक गई थी। 

वह भूतिया आकृति उसकी ओर तेज़ी से आ रही थी.... तेज़..... बहुत तेज़......

"आह... आ..आ" रूही ठोकर खा ज़मीन पर गिर गई थी, घुटने से खून बहने लगा। उसकी परवाह ना करते हुए वो उठी और भागने लगी घर की ओर... सफेद आकृति काफी करीब आ गई थी। घनघनाती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ के साथ एक शैतानी हंसी हंसते हुए......।

रूही के हाथ पांव फूल गए थे, सर से पांव तक पसीने से तरबतर हो गई थी। अब कदम आगे नहीं बढ पा रहे थे, वो वहीं धरती पर अचेत हो गई। 

जब आंख खुली तो देखा.. सामने मीना बैठी है उसके घुटने पर पानी डाल रही है।

"मीना... वो.... वो... मेरे पीछे आ रही थी...??"

"अरे कोई नहीं था रूही। में ही आ रही थी।"
"लेकिन..... लेकिन वो सफेद थी... पांव भी नहीं थे"
" मैं ही थी.. तुझे डरा रही थी.. साइकिल पर सफेद चादर ओढ़ कर आ रही थी.. " कह कर मीना ज़ोर से खिलखिला के हंस दी.. 

"बुद्धू, कहानी सुना रही थी में। इतना भी नहीं जानती क्या मुझे..?" 

******

खोना

कॉरोना काल ने कितनों को लील लिया। ऐसा लगता है भगवान को बहुत सारी आत्माओं के साथ रहने का मन है। 

जीवन में हमे कितने ही लोग मिलते है, लेकिन उनमें से कुछ ही होते है जो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है। 

वो एक सिहनी सी 
चपल हिरनी सी
ऊर्जा की थी अथाह सागर
ममता से भरी गागर
हिम्मत से बड़ना हमे सिखाया
वजूद को अपने पहचानना बताया
जो पहचान मेरी आज है
वो सब तेरी ही देन है 
एक नजर देख भी ना पाए
अंत में तुझसे मिल भी ना पाए
भूल जाना चाहे इस जग को
लेकिन हम ना भूलेंगे तुझको
अपने बढ़ते हर कदम पर
याद करते रहेंगे तुझको।

मेरी गुरु तुम्हे प्रणाम। जीवन भर में आप के जैसा ना गुरु मिला है और शायद ना ही आगे मिल पाएगा। 

में एक caterpillar की तरह अपने cacoon में बंद थी। वो आप ही थी जिसने मुझे निकाला बाहर वहां से, पंखों से मेरे, पहचान कराई। कितना कुछ सीखा है आपसे अपने विषय के बारे में और जीवन के भी बारे में। जहां भी रहें आप, अपनी प्रेरणा देते रहना।

हरी ॐ

Saturday, June 5, 2021

रंग रसिया


"ऐ छोकरी! यहां आ... ऐसे का टुकर टूकर देखत रही.. कभाऊ आंदमी ना देखत बा का??" , हाथ रिक्शा से उतरते हुए हंस्मुखलाल बोले।

मुनिया ने बहुत आदमी देखे थे ... लेकिन ये बाबू जैसा कोई नहीं देखा था। बड़ी बड़ी गोटि जैसी आंखें,  जिसपर काले फ्रेम वाला बड़ा सा चश्मा था। बाल अस्त व्यस्त हो कर चेहरे पे यूं बिखर गए थे जैसे थाली में चावल डाले हों। कमीज़ की जेब फटी हुई थी.... और पतलून भी ऐसी लग रही थी मानो कुश्ती लड़ कर आ रहे हो। हाथ में बड़ा सा टीन का बक्सा था ।

गठीला बदन और चाल बड़ी चुस्त थी... होती क्यूं नहीं आखिर फौजी जो था....

हंसमुख थोड़ा झेंप सा गया मुनिया को यूं घूरते देखकर.. अपनी हालत पर पहले से ही परेशान था.. उस पर से मुनिया की हल्की भूरी आंखें, गुलाब की पंखुड़ी से नाजुक होठ.. लम्बी चोटी, जिसके कुछ लट जो छोटी थीं वे उसके कानो पे अठखेलियां कर रहीं थीं। उसका योवान मानो किसी का इंतजार कर रहा हो... वो खुद उसको अपलक देखते रह गया.. 

फिर थोड़ा संभालते हुए.. नरमा के बोला..." पहले तो कभी नहीं देखा.. कौन हो तुम???" 

वो खिलखिलाकर कर हंस पड़ी मानो उसने सवाल नहीं करा हो वरन् कोई चुटकला सुनाया हो।

"क्या हुआ... मैने कुछ गलत कहा क्या?? "
वो कुछ नहीं बोली बल्कि उसके फटेहाल कपड़ों की तरफ इशारा कर हाथ हिलाया .. मानो पूछ रही हो ये हाल कैसे हुआ??

हंसमुख फिर से झेंप गया.. आंखें नीची कर कुछ शर्माता सा बोला " वह क्या है.... स्टेशन से उतरते ही मेरा पांव कचरे के डब्बे में फंस गया... और, मैं उसी पर गिर गया... 4 लोगों ने मुझे पकड़ कर बाहर निकाला, उसी में मेरी यह हालत हो गई।"

यह सुनते ही, मुनिया और जोर जोर से हंसने लगी, और हंसते हुए ही वहां से भाग गई।

उसकी कोयल सी बोली कि कल्पना, हंसमुख के दिलो-दिमाग पर छा गई, रसिया तो वह हमेशा से था इस बार उसका दिल, मुनिया पर आ गया था.. 

हंसमुख ने कई बार.. मुनिया से बात करने की कोशिश करी ...आखिर सिर्फ 10 दिन की ही छुट्टी पर तो आया था लेकिन हर बार, मुनिया सिर्फ हंसती और वहां से चली जाती... उसने मीठी वाणी अभी भी नहीं सुनी थी.. इस बार..... रसिया कुछ अलग ही रंग में डूबने लगा था... शायद, प्रेम का रंग था.. लेकिन, एक तरफा था... किसी भी हाल में, मुनिया उसे घास ही नहीं डाल रही थी... जादू चलाना पड़ेगा.....

प्रेम रंग में डूब कर हंसमुख रसिया ... बुझते कदमों से वापस अपने काम पर चला गया। अगली बार मुनिया को अपनी प्रेम रंग में डूबा कर ही मानेगा.... ऐसा प्रण कर लिया था.....

 हंसमुख अपने गांव से वापिस बॉर्डर पर पहुंच गया था.... इस बार सिर्फ उसका शरीर आया था मन वहीं  गांव में उस लड़की के पास रह गया था। 

" ना जाने उसका क्या नाम है?? में तो उसका नाम भी नहीं जानता। कितनी बार पूछा था .. लेकिन उसने कुछ बताया ही नहीं.. नाम क्या, उसने तो मुझसे कोई बात ही नहीं करी.. ना जाने, फिर भी, उसमे एक कशिश है जिसने मुझे उसका दीवाना बना दिया है " खाट पर लेटे हुए उसने सोचा.. आंखों में उसकी छवि उतर आई और नींद खी खुमारी उसे जकड़ने लगी..।

यहां सभी सुरक्षा सैनिकों के बीच भी,  ना जाने क्यों, इस बार एक सैनिक का जोश नहीं था उसमे.... एक मजनू सा, खो जाने का एहसास था .... ना जाने क्यों, रह रह कर उसे उस लड़की की आंखें याद आती थी.... रह रह कर...उसकी घुंगरू सी मीठी हंसी उसके कानों में खनक जाती थी...

वह, यहां आ गया था ... लेकिन उसका दिल वही रह गया था। कैसे भी कोई उपाय हो और उसे घर जाने को मिल जाए... यही सोचते सोचते उसकी आंख लग गई...।

तभी महसूस हुआ कि कोई उसे झंझोड़ रहा है.. वो लपक कर उठ बैठा.. यह क्या.. सब तरफ अफरा तफरी मची हुई थी.. सब कुछ जैसे पानी के जहाज़ सा महसूस हो रहा था... धरती ज़ोर ज़ोर से हिलोरे खा रही थी.. सब सामान बिखर गया था... चारों तरफ चीख पुकार मची हुई थी...

वो झटके से उठा और भागने लगा... क्या करे क्या नहीं कुछ समझ नहीं आ रहा था.. सामने से एक बच्चा रोते हुए उसी की ओर भागते आ रहा था.. उसने उसका हाथ थाम गोद में उठा लिया।

फिर जैसे सब शांत हो गया हो। तूफान थम गया था.. भूकंप जो आया था वो अब शांत हो गया था.. धरती फिर ऐसे देख रही थी उसे, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो.. लेकिन जब उसने अपनी नज़र, चारों ओर  घुमाई तब पाता चला कितना विनाश हुआ था.. चंद सेकेंड का भूकंप और इतना विनाश। उफ्फ.. उसका दिल कांप गया। उसने हौले से बच्चे को गोद से उतारना चाहा, लेकिन उसने उसकी शर्ट कस कर पकड़ ली थी.. वो बहुत डर गया था.. 

एक पल के लिए उसका ध्यान ' उस लड़की ' पर गया, फिर, अगले ही पल वो अपने कर्तव्य को निभाने लगा।

एक इन्सान का कर्तव्य... एक सैनिक का कर्तव्य.. वो रक्षक है... और उसे अपना काम करना बखूबी आता था......

गावं में, मुनिया, किन्हीं विचारों मे खोई हुई थी। हंसमुख उसे पहली नजर में बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था.. लेकिन फिर, ना जाने क्या हुआ... उसका हर अंदाज़ पसंद आने लगा। उसकी कोई बात चीत तो नहीं हुई थी .... होती भी कैसे?? 

बचपन के एक हादसे ने उसके दिलो दिमाग को इतना ज़ोर के धक्का दिया था..... की उसकी बोली 'उसी ' पल में कैद हो गई थी। वो उस दिन कें बाद फिर कभी नहीं बोली... उसकी मामी ने उसे पाल पोस कर बड़ा करा था.. उसके माता पिता तो उस बस दुर्घटना में, खाई में समा गए थे.. वो, उन्हें ' बस ' के साथ नीचे, धरती मे समाती देखती रह गई थी... वो बच गई क्यूंकि, जब बस खाई के किनारे लटकी थी, तब मददगारों ने तब तक कुछ एक लोगो को खिड़की से बाहर निकाल लिया था... मुनिया तब ८ वर्ष की थी।

पिछले दो साल से, मामी, मामा और मुनिया इसी गांव में खेत खरीद कर रहने लगे थे। हंसमुख दो साल बाद अपने घर छुट्टी पर पहुंचा था.. जहां उसकी मुलाक़ात मुनिया से हुई थी।

मुनिया को हंसमुख का गठीला बदन व चुस्त चाल बड़ी मोहक लगी थी.. उसने कई बार हंसमुख को उसकी ओर बोलती निगाहों से देखते हुए महसूस करा था.. 

जब से वो गया है वापिस.. मुनिया को कुछ अच्छा नहीं लग रहा... बेचैनी में इधर उधर घूम रही थी कि अचानक.... धरती डोलने लगी... 

दूर से शोर सुनाई दिया.. भूकंप... घरों से बाहर निकलो..... और देखते ही देखते कई घर ताश के पत्तों से ढह गए। चारों तरफ से पशु पक्षी भागने लगे और विध्वंस होता दिखाई दिया...

मुनिया की आवाज़ आज भी नहीं निकल पाई... हलक में ही अटकी रही... उसने देखा उसकी मामी एक दीवार के नीचे ओंधी पड़ी है... बेसुध.. या शायद... सांसों ने साथ छोड़ दिया था...

मुनिया शून्य में ताकती ... बुझे कदमों से गांव वालों की मदद करने लगी......

**********

उस दिन भूकंप ने चारों ओर अफरा तफरी मच दी थी। हंसमुख अन्य जवानों के साथ पूरी तत्परता से सहायता कर रहा था। 

रह रह कर उसका मन, अपने गांव की तरफ खींचा जा रहा था। सुना था भूकंप गांव से कुछ ५० किलोमीटर की दूरी पर ही उत्पन हुए था। ना जाने गांव का क्या हाल होगा?? ना जाने पिताजी कैसे होंगे?? ना जाने ' वो लड़की ' कैसी होगी?? 

वो लड़की का खयाल आते ही उसका मन परेशान हो गया । पहली बार उसे मोहब्बत हुई थी.. अभी अपने मन की बात उसे बता भी नहीं पाया था कि यह सब हो गया। क्या उसके जीवन में कभी बहार आएगी??

मन के जज्बातों को दिल के तहखाने में बंद कर वो आगे बढ़ा... उफ्फ ..! कितनी जाने बेवजह चली गई .. वैसे, देखा जाए तो बेवजह कुछ नहीं होता... इंसान ने प्रकर्ती के साथ कितना खिलवाड़ करा है.. कभी ना कभी उसको गुस्सा आना ही था।
*
*
*
मुनिया पूरा ज़ोर लगा कर उस दीवार को हटाने को कोशिश कर रही थी जो उसकी मामी पर यूं पड़ी थी मानो ओढ़ना ले रखा हो। तमाम कोशिशों के बाद भी वो उस दीवार को टस से मस नहीं कर पा रही थी।

सामने ही गईया अपने बछड़े को उठाने की कोशिश कर रही थी। बछड़े की सांसे चलं रही थी .. लेकिन उसकी टांग पर बिजली का खंबा गिरा हुआ था। वो भी खड़ा नहीं हो पा रहा था।

पीछे से रोने की आवाजे आ रही थी। बड़ी बेसहाय महसूस कर रही थी.. इस सब में भी रह रह कर उसे हंसमुख का गठीला बदन और चुस्त शरीर याद आ रहा था। वो होता तो मामी और बछड़े को झट से खींच लेता। लेकिन, वो नहीं है .. 

मामी ने दम तोड़ दिया था... मुनिया पथरा गई थी.. पहले के हादसे ने उसकी ज़बान रोक ली थी.. अब जैसे जीने की तमन्ना जी खो दी उसने.. 

क्या कभी उसका जीवन भी सुधरेगा.. वो जिससे मन लगाती है, अपना बनती है, वो उसका साथ छोड़ देता है.. नहीं नहीं ... अच्छा ही हुआ जो उसने हंसमुख से अपने दिल की बात नहीं कही.. वैसे भी वो जा चुका था...।

         ********
२ साल बाद

हंसमुख आज फिर बस से उतरा था .. आज दिल में उम्मीद की एक किरण जागी फिर अगले ही पल बुझ भी गई। आज किसी खिलखिलाहट ने उसका स्वागत नहीं करा था। इतना वक्त गुजर चुका है.. ना जाने क्या हाल है सबका.. ??

जवान की पहली डयूटी देश के लिए होती है इसलिए भूकंप के बाद भी वो घर नहीं आ पाया था। वैसे घर के नाम पर बचा ही क्या है। बाबूजी तो चले गए .. सुना है घर की दीवार डह गई थी। उसी मलबे में कई दिनों तक धसे रहे .. जब गांव वालों को होश आया तब तक देर हो चुकी थी। 

वो भी कहां आ पाया था.. क्या करता आ कर। हां ' वो लड़की ' का खयाल आता था मन में, बार बार लेकिन उसका भी क्या।  ना जाने उसका क्या हुआ होगा..??

अपने विचारों में खोया हुआ वो घर की तरफ जा रहा था। वो पहली सी बात कही नहीं थी। सब उजड़ा उजड़ा सा था .. खेतों में भी वो रौनक नहीं थी जैसी पहले हुआ करती थी। काफी खेत सूखे वीरान पड़े थे .. कुछ एक में भुट्टे लगे थे। बच्चों का एक झुंड पास के मैदान में गिल्ली डंडा खेल रहा था। 

कुछ सोच वह अपने खेत की ओर मुड़ गया। पूरा खेत बंजर पड़ा था। देख यह हाल, उसकी आंखों से, झर झर आंसू निकल पड़े। वो वही बैठ गया और शून्य में ताकता रहा। वक्त का कोई अंदाज़ा ही नहीं था। काफी शाम घिर आया थी, वो खड़ा हुआ और कपड़े झाड़ते हुए, दूर कुएं की तरफ ध्यान गया।

वहां कुछ हलचल सी महसूस हुई। वो उसी तरफ बढ़ गया। वहां पहुंच देखा की कुछ बच्चे किसी को तंग कर रहे थे। शायद कोई पागल थी। वो बिना कुछ बोले , बिना झड़पें बच्चों के सितम सहन कर रही थी। हंसमुख ने बच्चों को डांट कर भगाया और उस महिला को ज़मीन से उठाया।

यह क्या.... यह तो वही लड़की थी.... !! सुनो" सुनो उठो .. क्या हाल बना रखा है.. " उसने पुकारा। लेकिन वह लड़की कुछ नहीं बोली। बस उसे ताकती रही.. मौन आंखों से..

"उफ़" हंसमुख के मुंह से आह निकली। वह तो इसका नाम भी नहीं जानता। 

उसने अपने हाथों का सहारा देते हुए उसको खड़ा कर अपने कंधे पर टिकाया.. और गांव की तरफ चल दिया.. 

वह जिसकी तलाश में आया था.. जिससे मिलने की चाह थी.. वह मिल गई थी। उसके साथ चल रही थी। लेकिन यह सिर्फ उसका शरीर था. वो ना जाने कहां खो गई थी...।

****


अंधेरा घना होता जा रहा था, चिरैयां अपने अपने घर लौट चुकीं थी। एक कंधे पर अपना बैग लटका कर दूसरे पर उस लड़की को टिकाए वो चौपाल तक पहुंचा। 
" उफ्फ .. यह क्या हो गया है मेरे गांव को..? पहचान ही नहीं पा रहा हूं.. आधे से ज्यादा मकान तो सिर्फ मलबे में तब्दील हो चुके है। इस लड़की का घर कहां है में तो यह भी नहीं जानता.. सुनो..! तुम्हारा घर कहां है.."

पूरे रास्ते, जो बेसुध सी लाश बनी उसके कंधे पर टिकी थी उसकी आंखों में अचानक कुछ रोशनी उभर आईं थीं। 

"घर.. घर कहां है तुम्हारा..?" उसने फिर पूछा।
वो फिर मौन हो गई.. आकाश को ताकने लगी। इतने में सामने से मनोहर काका आते दिखाई दिए।

"मनोहर काका, प्रणाम .. पहचाना नहीं क्या..? में हंसमुख। हरचरण जी का बेटा" हंसमुख बोला

" हां हां.. कैसे हो बेटा? काफी वक्त बात दिखे? और ये मुनिया कहां मिल गई तुम्हें। अच्छा करा जो इसे ले आए। बड़ी अभागी है बेचारी। चलो इसे मंदिर में छोड़ आते है।

"मंदिर में क्यूं?? मंदिर के पास ही रहती है क्या?"

"अरे नहीं.. नहीं.. अब और कहां रहेगी। घर तो बचा नहीं । पगला और गई है। वहीं पुजारी इसका खाना पीना देख लेता है। "

" क्या हुआ इसको?? पिछली बार आया था तब तो बड़ी स्वस्थ थी। हंसी ठिठोली करती थी?"

"अरे कहां.. कहां हंसी ठिठोली करती बेचारी... गूंगी हो गई है। ना जाने कब फिर बोलेगी.. इसका भी तो कसूर नहीं.. बचपन में मां बाप को अपनी आंखो से खाई में गिरते देखा... फिर भूकंप में अपने मामा मामी को दीवार के नीचे दम तोड़ते। पहले हादसे में आवाज़ चली गई दूसरे में सुध बुध।" सर हिलाते दुखी हो मनोहर काका बोले।

हंसमुख को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो समझ नहीं पा रहा था कि कैसे वो अब तक यह जान ही नहीं पाया की यह लड़की, मुनिया हां यही नाम तो कहा काका ने अभी इसका। मुनिया बोल नहीं सकती .. बचपन में ही आवाज़ चली गई थी.. उसको कुछ समझ नहीं आया। उसने तो इससे कितनी बातें करी थी.... या शायद नहीं करी थीं..??

हां अब याद आया... जब भी कुछ पूछा तो वह बस खिलखिलाती और इशारे से उत्तर दे भाग जाती थी। और वह यही समझता रहा की वह शर्मा कर भागती थी।

उफ्फ कितना कुछ सहा है इसने। में कुछ नहीं कर पाया । कितना कठिन रहा होगा सब सहना। 

काका ने बताया इसका कोई नहीं है। यूं ही दिन भर इधर से उधर घूमती रहती है। बच्चे तंग करते रहते हैं और यह बेसुध पड़ी रहती है।
मुनिया को मंदिर में छोड़ आने के बाद वह काका के घर ही रुक गया था। उसका खुद अपना घर भी तो कुछ खास नहीं बचा था। वह यहां से सारे नाते खत्म करने आया था। घर और खेत बेच कर हमेशा के लिए शहर जाने के इरादे से आया था।

किसी तरह हंसमुख ने रात गुजारी। रात भर ज्वारभाटे से खयाल उथल पुथल मचाते रहे। सुबह पहले मंदिर गया और मुनिया को आवाज़ लागाई। उसकी आवाज़ पर पहली बार मुनिया ने कोई प्रतिक्रिया जताई। 

" अरे बिटवा, तुमने तो जादू कर दवा। ई तो कछु ताकती नाही। तुम्हार आवाज़ पे पलट कर देखे रही। तुमको पहचान गई दिखे। " पुजारी खुश होते हुए बोला।

हंसमुख को बड़ी खुशी हुई। मुनिया के चेहरे के हाव भाव बदलने लगे और वह भागती हुई उसके पास आई, और उसके सीने से लग फूट फूट कर रोने लगी। हंसमुख उसका सिर सहलाता रहा और उसको जी भर कर रोने दिया।

पुजारी यह देख अवाक रह गया.. फिर उसकी आंखों में खुशी के आंसू भर गए।

"आज पहली बार ई रोई रही.. रो लेने दे। कित्तौ दर्द भर रहा है जायके सीने में। सारे दर्द को बह जान दे। बेटा मेरी मान तो इसको अपने साथाई रख ले। कोई तो है नहीं इसका, में कित्ते दिन इसकी सेवा कर पाऊंगा। मेरी भी उम्र बह गई है.. का भरोसा मेरा बुलावा कब आ जाय। जाई की फिक्र में जी रहा हता में। " पुजारी बोला।

मुनिया ने उसे कस कर जकड़ रखा था .. मानो इस बार कहीं नहीं जाने देगी। 

हंसमुख ने बहुत सोच विचार के बाद बहुत ही कठिन फैसला लिया। मकान और खेत को मनोहर काका के सुपुर्द कर दिया। 

" काका जब पैसे हो तब दे देना। नहीं हो तो भी कोई बात नहीं। यह सब मेरे किसी काम का नहीं है। मैने मुनिया से ब्याह करने का फैसला करा है। ऐसे लेकर जाऊंगा तो भगवान को क्या मुंह दिखाऊंगा। ब्याह कर ले जाऊंगा तो इसकी सेवा बिना ग्लानि कर पाऊंगा।" 

" जुग जुग जियो लल्ला.. इतने नेक विचार और इतना बड़ा त्याग .. फिलहाल मेरे पास थोड़े पैसे हैं वह ले जाना। ना.. लल्ला मना नहीं करना। मुनिया मेरी भी बिटिया समान है। लेकिन आज मुझे अपने पर शर्म आ रही है कि मेने अपनी बिटिया के लिए कुछ नहीं करा। मुझे विश्वास है और मेरा आशिर्वाद है कि यह जल्दी ठीक हो जाएगी । " काका ने ढेरों आशिर्वाद देते हुए एक लिफाफा थमा दिया। 

हंसमुख ने मुनिया से वही मंदिर में ब्याह कर लिया। मुनिया के चेहरे पर कई वक्त बाद सबने सुकून देखा.. और शायद मुस्कराहट भी... 

शायद उसका प्रेम उसकी मुनिया को वापस ला दे.. इसी उम्मीद के साथ अपने मकान को घर में बदलने की कामना करता चल दिया......!

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