Tuesday, June 8, 2021

सुनसान घर


सं १९३०

कभी उस आंगन में ढेरों किलकारियां गूंजा करती थी। कितना गर्व था हरिप्रसाद को अपने पूरे परिवार को हंसते खेलते देख कर।

हरिप्रसाद, एक छोटे से गांव सोंक से शहर आए थे। दिन में छोटे मोटे काम कर लेते थे, शाम को सड़क की बत्ती के नीचे ही अपना बिस्तर जमा लेते, फिर शुरू होता उनका पढ़ाई का कार्यक्रम। वो पूरी लगन से पढ़ाई करते थे। 

उस ज़माने में खुद पढ़ाई करना और इम्तिहान में बैठ जाना, आम था। वक्त बीतता गया और वो पूरी लगन और निष्ठा के साथ दोनों काम बखूबी करते रहे। अपने महनत से उन्होंने दांतों की डाक्टरी पूरी करी।
वहीं बाज़ार में छोटी सी क्लीनिक खोल ली। 

पैसे इकट्ठे कर के जुगाड़ लगाई और एक आलीशान कुर्सी भी खरीदी। जो ऊपर नीचे हो जाती थी, जिसपर मरीज़, बैठ अपने दांत दिखाते थे। वे बड़ी लगन से सब मरीजों का इलाज बखूबी करते रहे। जल्द ही वो अपने शहर के जाने माने दंत चिकित्सक माने जाने लगे।

इस बीच उनकी शादी ,बैकुंठी, से हो गई थी। जो सुंदर ही नहीं बल्कि ग्रह कार्य में निपुण भी थी। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी परन्तु , डाक्टर साहब के साथ रह कर उनसे काफी कुछ पढ़ना सीख गई थी। घर में दो नन्हे पुत्रों की किलकारियां गूंजने लगी थी। इस बार बड़ी आस थी कि पुत्री आ जाए। और हुआ भी ऐसा ही, उनकी गोद में नन्ही परी आ गई।

वक्त गुजरता रहा। डाक्टर साहब को, अपना कोई परिवार याद ना था, इसलिए वो खूब बड़े परिवार की कामना करते थे। उनका घर आंगन अब तीन लड़के और पांच लड़कियों से भर गया था। 

अहा , कितना मधुर संगीत सा प्रतीत होता था, उनका आंगन। घर में घुसते ही जो मधुरम किलकारियां सुनाई देती, तो उनका रोम रोम पुलकित हो जाता। जो कमी उन्होंने बचपन में महसूस करी थी - अकेलेपन की, वो अब पूरी हो गई थी।

घर आंगन गूंजित था
नन्ही बोलियों से
हर कोना जग मग था
बच्चों की मुस्कान से

उनका सीना फूल ना समाता, जब वे घर पहुंचते और सब बच्चे उन्हें चारों ओर से जकड़ लेते, कहते " बाबूजी, बाबूजी - आज क्या लाए हो हमारे लिए?" फिर वो चुपके से जलेबी की पुड़िया अपनी लाड़ली बैकुंठी को थमा देते। "जा बच्चों में बांट दे"

छोटी छोटी खुशियों से भर गया था घर संसार उनका। वक्त का पहिया अपनी गति से बहता रहा। और धीरे धीरे घोंसला छोड़ उनके पंख पसारने का वक्त आया। एक के बाद एक, सब पंछी उड़ गए अपने अपने टुकड़े के आसमान को ढूंढ़ने। 

आंगन सूना हो गया। वो अपनी बैकुंठी के साथ अकेले रह गए। दस कमरों का विशाल घर अब काटने को दौड़ता था। हर कोना अंधकार की गलियों में खो गया था। बागीचे का वो आम का पेड़ अपनी बाहें और फैला रहा था, मानो दूर उड़ते बच्चों को समेटना चाह रहा हो। उसकी बाहें भी अब बेजान सी इंतजार करती है, कभी तो फिर यह आंगन महकेगा। उसके आम का रस फिर मिठास घोलेगा।

हरिप्रसाद, नितांत अकेले उस आम के सहारे जीवन बसर करते बांट जोतते रहते है। बैकुंठी भी तो ना रही अब। उनका आंगन बेहद सूना हो गया। 

डाकिया आता था उनके साथ वक्त गुजरने, कभी कभी। आज हरिप्रसाद का मन बेचैन था । डाकिए ने आवाज़ दी तो हरिप्रसाद अनायास ही बोल पड़े
"अब यहां कोई नहीं रहता।"

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